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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कवष ऐलूष अक्षो वा मौजवान् देवता - अक्षकृषिप्रशंसा छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्रा॒वे॒पा मा॑ बृह॒तो मा॑दयन्ति प्रवाते॒जा इरि॑णे॒ वर्वृ॑तानाः । सोम॑स्येव मौजव॒तस्य॑ भ॒क्षो वि॒भीद॑को॒ जागृ॑वि॒र्मह्य॑मच्छान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒वे॒पाः । मा॒ । बृ॒ह॒तः । मा॒द॒य॒न्ति॒ । प्र॒वा॒ते॒ऽजाः । इरि॑णे । वर्वृ॑तानाः । सोम॑स्यऽइव । मौ॒ज॒ऽव॒तस्य॑ । भ॒क्षः । वि॒ऽभीद॑कः । जागृ॑विः । मह्य॑म् । अ॒च्छा॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रावेपा मा बृहतो मादयन्ति प्रवातेजा इरिणे वर्वृतानाः । सोमस्येव मौजवतस्य भक्षो विभीदको जागृविर्मह्यमच्छान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रावेपाः । मा । बृहतः । मादयन्ति । प्रवातेऽजाः । इरिणे । वर्वृतानाः । सोमस्यऽइव । मौजऽवतस्य । भक्षः । विऽभीदकः । जागृविः । मह्यम् । अच्छान् ॥ १०.३४.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 34; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    अक्षकृषि प्रशंसा और अक्ष-कितव निन्दा। (इरिणे वर्वृतानाः) सूखे कूप में उत्पन्न होते हुए, अथवा धन से रहित निर्धनता की दशा में ले जाने हारे, (प्र-वाते-जाः) नीचे देश में पैदा हुए, (प्रावेपाः) खूब कांपने और कंपाने वाले, भयोत्पादक, (बृहतः) बड़े भारी वृक्ष के फल के तुल्य जूए के पासे (मा मादयन्ति) मुझे हर्षित करते, मुझे मत्त कर देते। यह (वि-भीदकः) बहेड़े के वृक्ष से उत्पन्न यह जूए का गोटा, (मौजवतः सोमस्य इव भक्षः) मुञ्जवान् पर्वत पर उत्पन्न सोम-ओषघि लता के भक्षण योग्य रस के समान अस्वादन करने योग्य, (जागृविः) जीता जागता मानो (मह्यम् अच्छान्) मुझे बहलाता, फुसलाता है। जूआ आदि कृत्रिम साधन लोभी को इसी प्रकार फांसते हैं। (२) वस्तुतः, अध्यात्म में—(बृहतः) उस महान् पाप के ये फल या परिणाम (इरिणे वर्वृतानाः) धन जलादि शान्तिदायक साधनों से रहित दशा में मनुष्य को ले जाते हैं। वे राजस तामस भाव (प्रवाते-जाः) प्रबल वात के सदृश बलवान् मन के अधीन उत्पन्न होते हैं, वे (प्रावेपाः) मनुष्य को खूब इधर उधर नचाते कंपाते हैं, वे तुष्णार्त्त विषयलोलुप को (मादयन्ति) खूब उन्मत कर देते हैं। वह विषयाभिलाष उसको (मौजवतः सोमस्य इव भक्षः) मुंजवान् पर्वत में उत्पन्न उत्तम सोमपान के समान अति हर्षदायक प्रतीत होता है। अथवा, मुक्ति देने वाले मोक्षेश्वर प्रभु का परमानन्द सोम के समान ही विषयरसास्वाद भी विषयी को परमानन्दवत् प्रतीत होता है। परन्तु वस्तुतः वह है (विभीदकः) विविध प्रकार से शरीर और आत्मा को तोड़ डालने वाला, अति भयंकर, और (जागृविः) मनुष्य चुक जाय भले ही, परन्तु वह मनुष्य का मृत्युवत् सत्यानाश करने में नहीं चूकता, वही (मह्यम् अच्छान्) मुझ आत्मा को लुभाता है। अध्यक्ष पक्ष आगे स्पष्ट करेंगे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कवष ऐलुषोऽक्षो वा मौजवान् ऋषिः। देवताः- १, ७, ९, १२, १३ अक्षकृषिप्रशंसा। २–६, ८, १०, ११, १४ अक्षकितवनिन्दा। छन्द:- १, २, ८, १२, १३ त्रिष्टुप्। ३, ६, ११, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ५, ९, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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