ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
विश्वे॑ देवाः शा॒स्तन॑ मा॒ यथे॒ह होता॑ वृ॒तो म॒नवै॒ यन्नि॒षद्य॑ । प्र मे॑ ब्रूत भाग॒धेयं॒ यथा॑ वो॒ येन॑ प॒था ह॒व्यमा वो॒ वहा॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वे॑ । दे॒वाः॒ । शा॒स्तन॑ । मा॒ । यथा॑ । इ॒ह । होता॑ । वृ॒तः । म॒नवै॑ । यत् । नि॒ऽसद्य॑ । प्र । मे॒ । ब्रू॒त॒ । भा॒ग॒ऽधेय॑म् । यथा॑ । वः॒ । येन॑ । प॒था । ह॒व्यम् । आ । वः॒ । वहा॑नि ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वे देवाः शास्तन मा यथेह होता वृतो मनवै यन्निषद्य । प्र मे ब्रूत भागधेयं यथा वो येन पथा हव्यमा वो वहानि ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वे । देवाः । शास्तन । मा । यथा । इह । होता । वृतः । मनवै । यत् । निऽसद्य । प्र । मे । ब्रूत । भागऽधेयम् । यथा । वः । येन । पथा । हव्यम् । आ । वः । वहानि ॥ १०.५२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
विषय - देवगण। ज्ञानार्थी की गुरु जनों के प्रति प्रार्थना।
भावार्थ -
(विश्वे देवाः) समस्त विद्वान् पुरुषो ! (मा शास्तन) मुझे ऐसी रीति से शासन करो (यथा) जिससे (इह) इस लोक में (होता) ज्ञान ग्रहण करने वाला, शिष्य रूप से (वृतः) वरण किया जाकर भी (यत्) जो मैं (नि-सद्य) गुरु के समीप बैठकर (मनवै) ज्ञान प्राप्त कर सकूं। (यथा वः भागधेयम्) जिस प्रकार आप लोगों का भजन या सेवन करने योग्य, शिष्यों द्वारा धारण करने योग्य ज्ञान है वह (मे प्र ब्रवीत) मुझे प्रवचन द्वारा उपदेश करो। और मुझे यह भी बतलाओ (येन पथा) जिस मार्ग से (वः हव्यम्) आप लोगों के उपादेय ज्ञान-राशि को मैं (आ वहानि) सब प्रकार से धारण कर सकूं॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निः सौचीक ऋषिः। देवा देवताः॥ छन्द:- १ त्रिष्टुप्। २–४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
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