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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 56/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिगार्चीजगती स्वरः - निषादः

    द्विधा॑ सू॒नवोऽसु॑रं स्व॒र्विद॒मास्था॑पयन्त तृ॒तीये॑न॒ कर्म॑णा । स्वां प्र॒जां पि॒तर॒: पित्र्यं॒ सह॒ आव॑रेष्वदधु॒स्तन्तु॒मात॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्विधा॑ । सू॒नवः॑ । असु॑रम् । स्वः॒ऽविद॑म् । आ । अ॒स्था॒प॒य॒न्त॒ । तृ॒तीये॑न । कर्म॑णा । स्वाम् । प्र॒ऽजाम् । पि॒तरः॑ । पित्र्य॑म् । सहः॑ । आ । अव॑रेषु । अ॒द॒धुः॒ । तन्तु॑म् । आऽत॑तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्विधा सूनवोऽसुरं स्वर्विदमास्थापयन्त तृतीयेन कर्मणा । स्वां प्रजां पितर: पित्र्यं सह आवरेष्वदधुस्तन्तुमाततम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्विधा । सूनवः । असुरम् । स्वःऽविदम् । आ । अस्थापयन्त । तृतीयेन । कर्मणा । स्वाम् । प्रऽजाम् । पितरः । पित्र्यम् । सहः । आ । अवरेषु । अदधुः । तन्तुम् । आऽततम् ॥ १०.५६.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 56; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    (सूनवः) प्रजाओं को सन्मार्ग में चलाने वाले या देहों में प्रजारूप से उत्पन्न होने वाले जीवगण, (स्वः-विदम् असुरम्) तेज, सुख के प्राप्त कराने वाले, प्राणों में रमण करने वाले वीर्य को (तृतीयेन कर्मणा) तीसरे श्रेष्ठ कर्म द्वारा (द्विधा) दो भाग करके (स्वाम् प्रजाम् आ अस्थापयन्त) अपनी प्रजा को स्थापन करते हैं। वे (पितरः) पालक पिता होकर (अवरेषु) अपने से आगे आने वालों में (पित्र्यं सहः) पिता के बल, तेज, पराक्रम वा धन और (आततम् तन्तुम्) अभी तक चले आये, अविच्छिन्न प्रजा रूप तन्तु को (आ अदधुः) स्थापित करते हैं, वे उन पर ही प्रजोत्पादन का कर्त्तव्य धर जाते हैं। दो प्रकार की प्रजा पुत्र और शिष्य होती हैं। अथवा—(सूनवः) पुत्र लोग (स्वार्विदम्) तृतीयाश्रम भोगी (असुरं) अपने प्राणदाता पिता को (तृतीयेन कर्मणा) सर्वश्रेष्ठ मोक्ष साधन कर्म दो रूपों में पिता वा शिक्षक के रूप में स्थापित करते हैं। और पिता लोग (अवरेषु) आगे बढ़ने वालों पर (स्वां प्रजां) स्वप्रजा और (पित्र्यं सहः) पित्र्य धन को और (आततं तन्तुं) अविच्छिन्न वंशतन्तु को (अदधुः) स्थापित करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - बृहदुक्थो वामदेव्यः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:–१, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४ पादनिचृज्जगती। ५ विराड् जगती। ६ आर्ची भुरिंग् जगती॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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