ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 65/ मन्त्र 2
ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
इ॒न्द्रा॒ग्नी वृ॑त्र॒हत्ये॑षु॒ सत्प॑ती मि॒थो हि॑न्वा॒ना त॒न्वा॒३॒॑ समो॑कसा । अ॒न्तरि॑क्षं॒ मह्या प॑प्रु॒रोज॑सा॒ सोमो॑ घृत॒श्रीर्म॑हि॒मान॑मी॒रय॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑षु । सत्प॑ती॒ इति॒ सत्ऽप॑ती । मि॒थः । हि॒न्वा॒ना । त॒न्वा॑ । सम्ऽओ॑कसा । अ॒न्तरि॑क्षम् । महि॑ । आ । प॒प्रुः॒ । ओज॑सा । सोमः॑ । घृ॒त॒ऽश्रीः । म॒हि॒मान॑म् । ई॒रय॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राग्नी वृत्रहत्येषु सत्पती मिथो हिन्वाना तन्वा३ समोकसा । अन्तरिक्षं मह्या पप्रुरोजसा सोमो घृतश्रीर्महिमानमीरयन् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राग्नी इति । वृत्रऽहत्येषु । सत्पती इति सत्ऽपती । मिथः । हिन्वाना । तन्वा । सम्ऽओकसा । अन्तरिक्षम् । महि । आ । पप्रुः । ओजसा । सोमः । घृतऽश्रीः । महिमानम् । ईरयन् ॥ १०.६५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 65; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
विषय - वायु, अग्नि जल की व्यापक स्थिति, ओषधिवर्ग की जल के आश्रय वृद्धि, पक्षान्तर में राष्ट्र में सेनापति, पुरोहित और राजा तथा गृहपति, स्त्री और पुत्र का वर्णन।
भावार्थ -
(वृत्र हत्येषु) धनों को प्राप्त करने और शत्रुओं का नाश करने के कार्यों में (इन्द्राग्नी) इन्द्र और अग्नि, पवन और आग के तुल्य (सम्-ओकसा) एक ही स्थान पर रहते हुए, (सत्-पती) सज्जनों के पालक होकर (तन्वा) अपनी विस्तृत शक्ति से (मिथः हिन्वानाः) परस्पर को बढ़ाते हुए, (अन्तरिक्षं आ पप्रुः) अन्तरिक्ष को व्याप्त होते हैं। और (सोमः) सोम, ओषधिवर्ग भी (घृतश्रीः) जल के आश्रय पर रहकर (ओजसा) बल वीर्य से (महिमानम् ईरयन्) अपने महान् सामर्थ्य को बतलाता हुआ सर्वत्र भूमि में व्याप रहा है। (२) राष्ट्र में इन्द्र सेनापति, अग्नि विद्वान् पुरोहित और सोम राजा है (३) गृहस्थ में, इन्द्र पति, अग्नि स्त्री और सोम पुत्र हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:– १, ४, ६, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ३, ७, ९ विराड् जगती। ५, ८, ११ जगती। १४ त्रिष्टुप्। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥
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