ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 74/ मन्त्र 2
हव॑ एषा॒मसु॑रो नक्षत॒ द्यां श्र॑वस्य॒ता मन॑सा निंसत॒ क्षाम् । चक्षा॑णा॒ यत्र॑ सुवि॒ताय॑ दे॒वा द्यौर्न वारे॑भिः कृ॒णव॑न्त॒ स्वैः ॥
स्वर सहित पद पाठहवः॑ । ए॒षा॒म् । असु॑रः । न॒क्ष॒त॒ । द्याम् । श्र॒व॒स्य॒ता । मन॑सा । निं॒स॒त॒ । क्षाम् । चक्षा॑णाः । यत्र॑ । सु॒वि॒ताय॑ । दे॒वाः । द्यौः । न । वारे॑भिः । कृ॒णव॑न्त । स्वैः ॥
स्वर रहित मन्त्र
हव एषामसुरो नक्षत द्यां श्रवस्यता मनसा निंसत क्षाम् । चक्षाणा यत्र सुविताय देवा द्यौर्न वारेभिः कृणवन्त स्वैः ॥
स्वर रहित पद पाठहवः । एषाम् । असुरः । नक्षत । द्याम् । श्रवस्यता । मनसा । निंसत । क्षाम् । चक्षाणाः । यत्र । सुविताय । देवाः । द्यौः । न । वारेभिः । कृणवन्त । स्वैः ॥ १०.७४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 74; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
विषय - किरणों के तुल्य विद्वानों के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
(न) जिस प्रकार (द्यौः) सूर्य (स्वैः) अपने (वारेभिः) अन्धकारों को दूर करने वाले किरणों वा प्रकाशों से (सुविताय) सब के हित के लिये कार्य करता है, उसी प्रकार फैलने वा (देवाः) ज्ञान प्रकाश करने वाले ज्ञानदाता विद्वान् जन और दिव्य सूर्य अनि वायु आदि तत्त्व, (स्वैः वारेभिः) अपने वरणीय श्रेष्ठ गुणों वा कार्यों वा उपदेशों से (यत्र) जहां २ (सुविताय) सब के सुख और हित के लिये कार्य करते हैं वहां (एषाम्) इनका (असुरः हवः) सबको प्राणदायक यज्ञ, आहुति, दान, आदि (द्याम् नक्षत्) आकाश को व्यापता और (श्रवस्यता मनसा) अन्न वा यश और ज्ञान चाहने वाले चित्त के साथ (क्षां) योग्य भूमि वा उचित पात्र तक पहुंचता है। अर्थात् परोपकार बुद्धि से किये कार्य दान आदि को भी प्रभु सफल करता और उसका उपयोग भी सत्पात्र में होता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गौरिवीतिर्ऋषिः॥ इन्द्रो देवता। छन्दः- १, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ५ निचृत त्रिष्टुप्। ३ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्॥
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