ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 83/ मन्त्र 7
अ॒भि प्रेहि॑ दक्षिण॒तो भ॑वा॒ मेऽधा॑ वृ॒त्राणि॑ जङ्घनाव॒ भूरि॑ । जु॒होमि॑ ते ध॒रुणं॒ मध्वो॒ अग्र॑मु॒भा उ॑पां॒शु प्र॑थ॒मा पि॑बाव ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । प्र । इ॒हि॒ । द॒क्षि॒ण॒तः । भ॒व॒ । मे॒ । अध॑ । वृ॒त्राणि॑ । ज॒ङ्घ॒ना॒व॒ । भूरि॑ । जु॒होमि॑ । ते॒ । ध॒रुण॑म् । मध्वः॑ । अग्र॑म् । उ॒भौ । उ॒प॒ऽअं॒शु । प्र॒थ॒मा । पि॒बा॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि प्रेहि दक्षिणतो भवा मेऽधा वृत्राणि जङ्घनाव भूरि । जुहोमि ते धरुणं मध्वो अग्रमुभा उपांशु प्रथमा पिबाव ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । प्र । इहि । दक्षिणतः । भव । मे । अध । वृत्राणि । जङ्घनाव । भूरि । जुहोमि । ते । धरुणम् । मध्वः । अग्रम् । उभौ । उपऽअंशु । प्रथमा । पिबाव ॥ १०.८३.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 83; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 7
विषय - भक्त का प्रभु के दर्शनों के लिये उतावलापन, और समान सख्यभाव
भावार्थ -
हे प्रभो ! तू (अभि प्र इहि) समक्ष आ, दर्शन दे। (दक्षिणतः मे भव) मेरे दक्षिण ओर हो, दायें हाथ, मेरा परम सहायक और मेरा परम माननीय हो। (अध) और (वृत्राणि जंघनाव) हम दोनों विध्नकारी शत्रुओं और आत्मा को घेरने वाले काम, क्रोधादि बाधक कारणों का नाश करें। मैं (ते) तेरे लिये (मध्वः) मधुर रस रूप आनन्द के (अग्रम्) सर्वश्रेष्ठ, (धरुणम्) धारण करने वाले आत्मा को पात्र तुल्य (ते) अर्घ के तुल्य तुझे (जुहोमि) प्रदान करता हूं। और (ते मध्वः) तेरे परम मधुर आनन्द के (अग्रम् धरुणम्) सर्वश्रेष्ठ धारक स्वरूप को मैं (जुहोमि) स्वयं प्राप्त करूं। इस प्रकार (उपांशु) अति समीपतम एक दूसरे में व्याप कर (उभौ) हम दोनों (प्रथमा) सर्वश्रेष्ठ एवं देह-ग्रहण के पूर्व शुद्ध आत्मरूप होकर (पिबाव) एक दूसरे का पान करें। तू मेरा पान अर्थात् पालन कर वा मुझे अपने भीतर अपनी रक्षा में लेले और मैं तुझे अपने हृदय में धारण करूं, वा तेरे आनन्दमय रस का पान करूं। इत्यष्टादशो वर्गः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मन्युस्तापसः॥ मन्युर्देवता। छन्दः- १ विराड् जगती। २ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
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