ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 99/ मन्त्र 2
स हि द्यु॒ता वि॒द्युता॒ वेति॒ साम॑ पृ॒थुं योनि॑मसुर॒त्वा स॑साद । स सनी॑ळेभिः प्रसहा॒नो अ॑स्य॒ भ्रातु॒र्न ऋ॒ते स॒प्तथ॑स्य मा॒याः ॥
स्वर सहित पद पाठसः । हि । द्यु॒ता । वि॒ऽद्युता॑ । वेति॑ । साम॑ । पृ॒थुम् । योनि॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वा । स॒सा॒द॒ । सः । सऽनी॑ळेभिः । प्र॒ऽस॒हा॒नः । अ॒स्य॒ । भ्रातुः॑ । न । ऋ॒ते । स॒प्तथ॑स्य । मा॒याः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स हि द्युता विद्युता वेति साम पृथुं योनिमसुरत्वा ससाद । स सनीळेभिः प्रसहानो अस्य भ्रातुर्न ऋते सप्तथस्य मायाः ॥
स्वर रहित पद पाठसः । हि । द्युता । विऽद्युता । वेति । साम । पृथुम् । योनिम् । असुरऽत्वा । ससाद । सः । सऽनीळेभिः । प्रऽसहानः । अस्य । भ्रातुः । न । ऋते । सप्तथस्य । मायाः ॥ १०.९९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 99; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
विषय - सर्वोपरि शासक प्रभु। अध्यात्म में—आत्मा का वर्णन।
भावार्थ -
(सः हि) और वह (द्युता) चमकने वाले, प्रकाशमय (विद्युता) विशेष कान्तियुक्त, तेज से (साम) एक समान, बलयुक्त, शान्तिदायक, (पृथुम्) विशाल आश्रय स्थान के आकाश को (वेति) व्यापता है। प्रकाशित करता है। (सः) वह परम प्रभु (सनीडेभिः) अपने २ आश्रयों सहित सूर्य वायु आदि द्वारा (प्र सहानः) जगत् भर को वश करता हुआ, (असुरत्वा) सर्वजगत् सञ्चालक व प्राणप्रद बल से (ससाद) विराजता है। (ऋते) सत्य ज्ञान, वा परम कारण रूप सत् प्रकृति में ही (अस्य भ्रातुः न) समस्त विश्व के भरण-पोषण करने वाले (सप्तथस्य) सर्वव्यापक वा षड्-विकारों से अतिरिक्त सातवें इस प्रभु की ही (मायाः) समस्त ये निर्माण शक्तियां या बुद्धि-कौशल हैं। अध्यात्म में मन सहित छहों इन्द्रियों से अतिरिक्त सातवां आत्मा इन्द्र है। जो प्राण के प्रेरक बल से देह में विराजता है। स्व स्व स्थानों में स्थित इन्द्रियों वा अंगों से समस्त ग्राह्य विषयों को ग्रहण करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्वम्रो वैखानसः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ९, १२ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ आसुरी स्वराडार्ची निचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
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