ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 99/ मन्त्र 2
स हि द्यु॒ता वि॒द्युता॒ वेति॒ साम॑ पृ॒थुं योनि॑मसुर॒त्वा स॑साद । स सनी॑ळेभिः प्रसहा॒नो अ॑स्य॒ भ्रातु॒र्न ऋ॒ते स॒प्तथ॑स्य मा॒याः ॥
स्वर सहित पद पाठसः । हि । द्यु॒ता । वि॒ऽद्युता॑ । वेति॑ । साम॑ । पृ॒थुम् । योनि॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वा । स॒सा॒द॒ । सः । सऽनी॑ळेभिः । प्र॒ऽस॒हा॒नः । अ॒स्य॒ । भ्रातुः॑ । न । ऋ॒ते । स॒प्तथ॑स्य । मा॒याः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स हि द्युता विद्युता वेति साम पृथुं योनिमसुरत्वा ससाद । स सनीळेभिः प्रसहानो अस्य भ्रातुर्न ऋते सप्तथस्य मायाः ॥
स्वर रहित पद पाठसः । हि । द्युता । विऽद्युता । वेति । साम । पृथुम् । योनिम् । असुरऽत्वा । ससाद । सः । सऽनीळेभिः । प्रऽसहानः । अस्य । भ्रातुः । न । ऋते । सप्तथस्य । मायाः ॥ १०.९९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 99; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सः-हि) वह ही परमात्मा (विद्युता द्युता) विशेष दीप्ति से तेजस्विता से (पृथुम्) प्रथनशील विस्तृत (साम) शान्तिपद-मोक्ष को प्राप्त कराता है, वह मोक्ष में (असुरत्व) प्राणप्रदरूप से अत्यन्त आयुप्रदरूप से (सः) वह परमात्मा (सनीळेभिः) समान गृहवासी उपासक आत्माओं के द्वारा (प्रसहानः) धार्यमाण-ध्यान में आया हुआ, उपासना में आया हुआ (योनिं ससाद) उन उपासक आत्माओं के हृदयगृह को प्राप्त होता है-साक्षात् होता है (अस्य भ्रातुः) इस भरणकर्त्ता पोषणकर्त्ता (सप्तथस्य) सप्तस्थ-भूः, भुवः, आदि सप्तलोक में स्थित की (मायाः) प्रज्ञाएँ-बुद्धिकौशल (न) इस समय (ऋते) जगत् में उपादानकारण प्रकृति में वर्त्तमान हैं ॥२॥
भावार्थ
आत्मा की विशेष दीप्तिमत्ता और तेजस्विता से परमात्मा विस्तृत शान्तिपद मोक्ष को प्राप्त कराता है, वह मोक्ष में लम्बी आयु को प्रदान करता है, उपासकों द्वारा उपासित हुआ परमात्मा उनके हृदय में साक्षात् होता है, भूः, भुवः, आदि सप्तलोकों में स्थित परमात्मा के बुद्धिकौशल उपादान-कारण प्रकृति में वर्त्तमान होकर जगत् में दृष्टिगोचर होते हैं ॥२॥
विषय
'ज्ञान-विज्ञान' से युक्त होकर 'उपासना'
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार (सः) = वह 'वृत्रतू:' व्यक्ति (हि) = निश्चय से (द्युता) = विद्युता-ज्ञान- विज्ञान के साथ साम (वेति) = उपासनात्मक मन्त्रों व स्तोत्रों को प्राप्त होता है। ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त करता है और स्तवन को करनेवाला होता है। [२] (असुरत्वा) = [असु क्षेपणे] वासनारूप शत्रुओं के दूर फेंकने के द्वारा यह (पृथुं योनिम्) = उस विशाल उत्पत्ति-स्थान प्रभु में (ससाद) = आसीन होता है। वस्तुतः प्रभु में आसीन होने से ही यह पूर्णरूपेण वासनाओं का पराभव कर पाता है । [३] (स) = वह (सनीडेभिः) = अपने साथ समान नीडवाले इन प्राणों के द्वारा (प्र सहानः) = शत्रुओं का पूर्णरूप से मर्षण करता है। प्राणसाधना इसे इस योग्य बनाती है कि यह कामादि का पराभव कर सके । प्राणों से टकराकर ये वासनाएँ इस प्रकार नष्ट हो जाती हैं, जैसे कि पत्थर से टकराकर मट्टी का ढेला नष्ट हो जाता है । [४] (अस्य सप्तथस्य) = इस पाँच ज्ञानेन्द्रियों व मन का अपने साथ वर्षण करने करनेवाले [मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ] सातवें जीवन के ऋते व्यवस्थित जीवन के होने पर, अनृत से दूर होकर ऋत में चलने पर (माया:) = प्रज्ञान (भ्रातुः न) = अपने बड़े भाइ प्रभु की तरह होते हैं, [ द्वा सुपर्मा समुजा सखाया० ] प्रभु की तरह यह भी ज्ञान से चमक उठता है । 'भ्रातुः ' शब्द का अर्थ 'संसार का भरण करनेवाला प्रभु' भी किया जा सकता है। इस प्रभु की तरह यह वासनाओं का पराभव करनेवाला व्यक्ति भी ज्ञान सम्पन्न होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त करके प्रभु के उपासक बनें। प्रभु में आधीन होने पर हम वासनाओं का विनाश कर पाएँगे। उस समय ही वस्तुतः ऋतमय जीवनवाले बनकर हम ज्ञान से चमकेंगे।
विषय
सर्वोपरि शासक प्रभु। अध्यात्म में—आत्मा का वर्णन।
भावार्थ
(सः हि) और वह (द्युता) चमकने वाले, प्रकाशमय (विद्युता) विशेष कान्तियुक्त, तेज से (साम) एक समान, बलयुक्त, शान्तिदायक, (पृथुम्) विशाल आश्रय स्थान के आकाश को (वेति) व्यापता है। प्रकाशित करता है। (सः) वह परम प्रभु (सनीडेभिः) अपने २ आश्रयों सहित सूर्य वायु आदि द्वारा (प्र सहानः) जगत् भर को वश करता हुआ, (असुरत्वा) सर्वजगत् सञ्चालक व प्राणप्रद बल से (ससाद) विराजता है। (ऋते) सत्य ज्ञान, वा परम कारण रूप सत् प्रकृति में ही (अस्य भ्रातुः न) समस्त विश्व के भरण-पोषण करने वाले (सप्तथस्य) सर्वव्यापक वा षड्-विकारों से अतिरिक्त सातवें इस प्रभु की ही (मायाः) समस्त ये निर्माण शक्तियां या बुद्धि-कौशल हैं। अध्यात्म में मन सहित छहों इन्द्रियों से अतिरिक्त सातवां आत्मा इन्द्र है। जो प्राण के प्रेरक बल से देह में विराजता है। स्व स्व स्थानों में स्थित इन्द्रियों वा अंगों से समस्त ग्राह्य विषयों को ग्रहण करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वम्रो वैखानसः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ९, १२ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ आसुरी स्वराडार्ची निचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सः-हि) स एव परमात्मा (विद्युता-द्युता) विशिष्टदीप्त्या तेजस्वितया (पृथुं साम वेति) प्रथनशीलं शान्तिपदं प्रापयति “अन्तर्गतणिजर्थः” तत्र मोक्षे (असुरत्वा) प्राणप्रदत्वेन-अतिशयितायुप्रदत्वेन (सः सनीडेभिः प्रसहानः) सः परमात्मा समानगृहवासिभिः “नीळं गृहनाम” [निघ० ३।४] उपासकात्मभिः प्रसहमानो धार्यमाणः (योनिं ससाद) तेषां हृदयगृहम् “योनिर्गृहनाम” [निघ० ३।४] सीदति, साक्षाद्भवति (अस्य भ्रातुः) अस्य भरणकर्त्तुः परमात्मनः (सप्तथस्य मायाः) सप्तस्थस्य भूरित्येवमादिषु सप्तलोकेषु स्थितस्य “सकारलोपश्छान्दसः” प्रज्ञाः-कौशलानि वा (न-ऋते) सम्प्रति न सम्प्रत्यर्थे [निरु० ६।८] उपादानकारणे प्रकृत्याख्ये-प्रवर्त्तन्ते ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
He, challenger of adversaries and destroyer of suffering and violence, goes on with light and lightning, pervades the vast space, and rules and breaks the mighty clouds with his kindred Maruts. Such is the power and splendour of the ruler and sustainer of the highest heavens.
मराठी (1)
भावार्थ
आत्म्याच्या विशेष दीप्तिमत्तेने व तेजस्वितेने परमात्मा आत्म्याला विस्तृत शांतिपद मोक्ष प्रदान करतो. मोक्षात दीर्घ आयू प्रदान करतो. उपासकांद्वारे उपासित परमात्मा त्यांच्या हृदयात साक्षात होतो. भू: भुव: इत्यादी सप्तलोकात स्थित परमात्म्याचे बुद्धिकौशल्य उपादान कारण प्रकृतीमध्ये वर्तमान असून, जगात दृष्टिगोचर होते. ॥२॥
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