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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 99 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 99/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वम्रो वैखानसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स द्रुह्व॑णे॒ मनु॑ष ऊर्ध्वसा॒न आ सा॑विषदर्शसा॒नाय॒ शरु॑म् । स नृत॑मो॒ नहु॑षो॒ऽस्मत्सुजा॑त॒: पुरो॑ऽभिन॒दर्ह॑न्दस्यु॒हत्ये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । द्रुह्व॑णे । मनु॑षे । ऊ॒र्ध्व॒सा॒नः । आ । सा॒वि॒ष॒त् । अ॒र्श॒सा॒नाय॑ । शरु॑म् । सः । नृऽत॑मः । नहु॑षः । अ॒स्मत् । सुऽजा॑तः । पुरः॑ । अ॒भि॒न॒त् । अर्ह॑न् । द॒स्यु॒ऽहत्ये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स द्रुह्वणे मनुष ऊर्ध्वसान आ साविषदर्शसानाय शरुम् । स नृतमो नहुषोऽस्मत्सुजात: पुरोऽभिनदर्हन्दस्युहत्ये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । द्रुह्वणे । मनुषे । ऊर्ध्वसानः । आ । साविषत् । अर्शसानाय । शरुम् । सः । नृऽतमः । नहुषः । अस्मत् । सुऽजातः । पुरः । अभिनत् । अर्हन् । दस्युऽहत्ये ॥ १०.९९.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 99; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः) वह (ऊर्ध्वसानः) अपने गुणों से ऊँचे पद का भागी परमात्मा (द्रुह्वणे) द्रोह करनेवाले (अर्शसानाय) आक्रमणकारी (मनुषे) मनुष्य के लिये (शरुम्) हिंसा करनेवाले शस्त्र को (आसाविषत्) उत्पन्न करता है-तैयार करता है या प्रेरित करता है (सः-अर्हन्) वह पूज्य (नहुषः) बन्धनमोचक (नृतमः) अतिशय से नेता (सुजातः) गुणों द्वारा प्रसिद्ध परमात्मा (अस्मत्) हमारे लिये (दस्युहत्ये) नाशकारी के हननार्थ (पुरः) उसके नगरों स्थानों को (अभिनत्) छिन्न-भिन्न करता है-नष्ट करता है ॥७॥

    भावार्थ

    परमात्मा अपने गुणों से सर्वोत्तम है। वह अन्य पर अन्यथा आक्रमणकारी दुष्टजन को घर नगर सहित नष्ट कर देता है ॥७॥

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    विषय

    असुर-पुर- विध्वंस

    पदार्थ

    [१] (सः) = वे प्रभु (द्रुह्वणे) = [द्रुह जिघांसायाम्] हमें मारने की कामना करनेवाले काम-क्रोधादि को [वन्= win] पराजित करनेवाले (मनुषे) = विचारशील पुरुष के लिए (ऊर्ध्वसानः) = उत्कृष्ट प्रदेश को प्राप्त करानेवाले हैं। (अर्शसानाय =) इन काम-क्रोधादि शत्रुओं की हिंसा करनेवाले के लिए वे प्रभु ही (शरुम्) = शत्रुओं के शीर्ण करनेवाले वज्र को (आसाविषत्) = सर्वथा उत्पन्न करते हैं। इस विचारशील पुरुष को वे वह वज्र प्राप्त कराते हैं, जिससे कि वह इन सब शत्रुओं का संहार कर पाता है । [२] (सः) = वे प्रभु ही (नृतमः) = हमारे सर्वोत्तम नेता हैं, (नहुषः) = हम सबको एक दूसरे के साथ बाँधनेवाले हैं। हम सबके पिता होते हुए वे हमें परस्पर (भ्रातृ) = बन्धन में बाँधते हैं । [३] (अस्मान् सुजातः) = हमारे हृदयों में उत्तमता से प्रादुर्भूत हुए हुए वे प्रभु, (अर्हन्) = हमारे से पूज्य होते हुए (दस्युहत्ये) = काम-क्रोधादि दास्यव वृत्तियों के साथ चलनेवाले संग्राम में (पुरः अभिनत्) = इन शत्रु - पुरियों का विध्वंस करते हैं। काम ने इन्द्रियों में, क्रोध ने मन में तथा लोभ ने बुद्धि में जो अपना किला बनाया है, प्रभु उन सबको विध्वस्त कर देते हैं । इन तीनों पुरियों के विध्वंस को करनेवाले वे प्रभु 'त्रिपुरारि' हैं। इनको विध्वस्त करके वे प्रभु हमारे उन्नति मार्ग को निर्विघ्न कर देते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें वह वज्र प्राप्त कराते हैं जिससे कि हम काम-क्रोधादि शत्रुओं का पराजय कर सकें। वे असुर- पुरियों का विध्वंस करके हमें उन्नतिपथ पर आगे ले चलते हैं।

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    विषय

    दुष्ट-दमन के निमित्त शस्त्रों-अस्त्रों के प्रयोग का उपदेश।

    भावार्थ

    (सः) वह (ऊर्ध्व-सानः) उच्च पद को प्राप्त करने वाला, उत्तम पुरुष (द्रुह्वणे) द्रोही और (अर्शसानाय) हिंसाकारी मनुष्य को दण्ड देने के लिये (शरुम आ साविषत्) हिंसाकारी साधन का प्रयोग करे। (सः नृ-तमः) वह नरश्रेष्ठ, (सु-जातः) उत्तम, (नहुषः) दुष्टों का बन्धनकारी, (अर्हन्) पूज्य होकर (अस्मत् दस्यु-हत्ये) हमारे नाशकारी शत्रुओं के विनाशकारी उद्योग, संग्राम में (पुरः) शत्रु के शरीरों और दृढ़ दुर्गों को (अभिनत्) तोड़े, उसी प्रकार वह प्रभु द्रोही, हिंसक, दुष्ट जनों को दुःख देता है। और दुष्टों के दण्ड देने के लिये उनके शरीरों को भी नष्ट करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वम्रो वैखानसः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ९, १२ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ आसुरी स्वराडार्ची निचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः-ऊर्ध्वसानः) स स्वैर्गुणैरूर्ध्वपदभाजी परमात्मा (द्रुह्वणे) द्रोग्धे “दुह धातोः क्वनिप् प्रत्ययः” “अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते” [अष्टा० ३।२।७५] (मनुषे) जनाय (अर्शसानाय) प्राप्ताय-“आक्रमणकारिणे” “अत्तेर्गुणः शुट् च-असानच्” [उणा० २।८८] (शरुम्-आसाविषत्) हिंसाकारिशस्त्रं सुनोति (सः-अर्हन्-नहुषः-नृतमः) स पूज्यो बन्धननिर्मोचको नेतृतमः (सुजातः) गुणैः सुप्रसिद्धः (अस्मत्) अस्मभ्यम् “सुपां सुलुक्” [अष्टा० ७।१।३९] इति चतुर्थीविभक्तेर्लुक् (दस्युहत्ये) उपक्षयकर्तुर्हनननिमित्तं (पुरः-अभिनत्) तस्य स्थानानि भिनत्ति-नाशयति ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord supreme, highest potent, best and foremost leader among humanity committed to truth and right and controller of the lawless and violent, strikes the weapon of justice and punishment against the forces of jealousy, enmity and destruction and, risen to nobility and grandeur of personality in his own right, deserving the highest position, destroys the strongholds of negativity in our struggle against anti-social and anti life elements.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा आपल्या गुणांनी सर्वोत्तम आहे. तो दुसऱ्या आक्रमणकारी दुष्टजनांना घर नगरासह नष्ट करतो. ॥७॥

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