ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 99/ मन्त्र 11
ऋषिः - वम्रो वैखानसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒स्य स्तोमे॑भिरौशि॒ज ऋ॒जिश्वा॑ व्र॒जं द॑रयद्वृष॒भेण॒ पिप्रो॑: । सुत्वा॒ यद्य॑ज॒तो दी॒दय॒द्गीः पुर॑ इया॒नो अ॒भि वर्प॑सा॒ भूत् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य । स्तोमे॑भिः । औ॒शि॒जः । ऋ॒जिश्वा॑ । व्र॒जम् । द॒र॒य॒त् । वृ॒ष॒भेण॑ । पिप्रोः॑ । सुत्वा॑ । यत् । य॒ज॒तः । दी॒दय॑त् । गीः । पुरः॑ । इ॒या॒नः । अ॒भि । वर्प॑सा । भूत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य स्तोमेभिरौशिज ऋजिश्वा व्रजं दरयद्वृषभेण पिप्रो: । सुत्वा यद्यजतो दीदयद्गीः पुर इयानो अभि वर्पसा भूत् ॥
स्वर रहित पद पाठअस्य । स्तोमेभिः । औशिजः । ऋजिश्वा । व्रजम् । दरयत् । वृषभेण । पिप्रोः । सुत्वा । यत् । यजतः । दीदयत् । गीः । पुरः । इयानः । अभि । वर्पसा । भूत् ॥ १०.९९.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 99; मन्त्र » 11
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ऋजिश्वा) सरल ज्ञानदि गुणों को प्राप्त श्रेष्ठ जन (औशिजः) ज्ञानप्रकाश से सम्पन्न (अस्य) इस परमात्मा का (स्तोमेभिः) स्तुति-वचनों के द्वारा (पिप्रोः) पालनीय शरीर के (वृषभेण) सुखवर्षक धर्म से (वज्रं दरयत्) इन्द्रियसमूह को वृत्तिनिरोध से विदीर्ण करता है (यत्) जब (यजतः-सुत्वा) सङ्गति करता है अध्यात्मयाजक (गीः-दीदयत्) स्तुतियों को प्रकाशित करता है (पुरः-इयानः) मन बुद्धि चित्त अहंकार को प्राप्त होता हुआ (वर्पसा-अभिभूत्) स्वरूप से निर्मल हो जाता है ॥११॥
भावार्थ
ज्ञानादि गुणों को प्राप्त हुआ ज्ञानप्रकाश से सम्पन्न स्तुतिवचनों के द्वारा परमात्मा की स्तुति करता है, तो पुनः-पुनः पालनीय शरीर के इन्द्रियसमूह को चित्तवृत्तिनिरोधरूप सुखवर्षक धर्म से क्षीण सा कर देता है, तब यह समागमकर्ता आत्मा मन बुद्धि चित अहंकार को अपने अनुकूल बना लेता है ॥११॥
विषय
पिप्रु व्रज विदारण
पदार्थ
[१] (अयम्) = यह उपासक (स्तोमेभिः) = स्तुतियों के द्वारा (औशिजः) = प्रभु प्राप्ति की प्रबल कामनावाला अथवा मेधावी [नि० ३ । १५] होता है । स्तुति से अशुभ वृत्तियाँ नष्ट होती हैं। ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं के दूर होने पर ज्ञान दीप्त हो उठता है । (ऋजिश्वा) = यह व्यक्ति ऋजुमार्ग से आगे बढ़नेवाला [श्वि गतिवृद्धयोः] होता है। उस बृषभेण शक्तिशाली प्रभु के द्वारा यह (पिप्रो:) = पिप्रु के (व्रजम्) = व्रज व बाड़े को (दरयत्) = विदीर्ण करता है 'पिप्रु' वह आसुरवृत्ति है जिसके कारण यह अपने ही खजाने को भरने का ध्यान करता है, टेढ़े-मेढ़े सभी साधनों से धन को ही जुटाने में लगा रहता है [प्रा पूरणे] । यही लोभ है । यह लोभ बुद्धि में अपना अधिष्ठान [व्रज] बनाकर बुद्धि पर परदा डाल देता है। प्रभु की उपासना से यह 'पिप्रु का व्रज' विदीर्ण होता है और बुद्धि चमक उठती है । [२] यह व्यक्ति (सुत्वा) = यज्ञशील होता है, हाथों से सदा यज्ञादि उत्तम कर्म करता रहता है। और (यद्) = जब यह (यजतः) = उस प्रभु का पूजन करनेवाला बनता है तो अपनी बुद्धि में (गीः) = ज्ञान की वाणियों को (दीदयत्) = दीप्त करता है। 'हाथों में यज्ञ, हृदय में प्रभु पूजा तथा बुद्धि में ज्ञान की वाणियाँ' इस पुरुष को दीप्त जीवनवाला बना देती हैं। यह (पुरः) = शत्रु - पुरियों के (प्रति इयानः) = जाता हुआ उनपर आक्रमण करता हुआ, (वर्पसा) = अपने तेजस्वी रूप से (अभिभूत्) = उनका अभिभव करनेवाला होता है शत्रु-पुरियों का विध्वंस करके अपने जीवन को यह दीप्त व सुखी बनाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु-स्तवन से हम आसुर भावनाओं को दूर करके मेधावी, सरल गति, यज्ञशील, उपासक व ज्ञानी बनें।
विषय
प्रभु-भक्ति से देह-बन्धन से मोक्ष प्राप्ति।
भावार्थ
(यत्) जब (सुत्वा) उपासक (यजतः) देवपूजा करने वाला भक्त (गीः) स्तोता होकर (दीदयत्) अपने गुणों को प्रकाशित करता है (पुरः इयानः) अपने देहों को प्राप्त होता हुआ भी उन समस्त देहों को (वर्पसा) बल से वा उत्तम आत्मा रूप से (अभि भूत्) अपने वश कर लेता है। तब वह (ऋजिश्वा) वशीभूत इन्द्रियों वाला (औशिजः) तेजोमय प्रभु का उपासक होकर (अस्य स्तोमेभिः) उस प्रभु के स्तुति वचनों से ही (वृषभेण) बलवान्, सुखवर्षक रूप से (पिप्रोः) नित्य पालनीय इस देह के (व्रजम्) समूह को (दरयत्) दलित करता है। देहों को तोड़ कर मुक्त हो जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वम्रो वैखानसः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ९, १२ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ आसुरी स्वराडार्ची निचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ऋजिश्वा) सरलज्ञानादिगुणप्राप्तः श्रेष्ठजनः “य ऋजीन् ज्ञानादिसरलान् गुणानश्नुते” ऋजधातोरिक् अशूङ् धातोर्ङ्वनिप्-अकारलोपश्च [ऋ० १।५२।५ दयानन्दः] (औशिजः) ज्ञानप्रकाशसम्पन्नः “औशिजः य उशिजि प्रकाशे जातः सः” [ऋ० १।१८।१ दयानन्दः] (अस्य) परमात्मनः (स्तोमेभिः) स्तुतिवचनैः (पिप्रोः) पुनः पुनः पालनीयस्य शरीरस्य-पृधातोरौणादिकः कुः प्रत्ययः श्लुवच्च (वृषभेण) सुखवर्षकधर्मेण (व्रजं दरयत्) इन्द्रियसमूहम् “व्रजं समूहम्” [ऋ० १।१०।७ दयानन्दः] वृत्तिनिरोधेन दृणाति-विदारयति (यत्) यदा (यजतः-सुत्वा) सङ्गन्ता-अध्यात्मयाजकः (गीः-दीदयत्) स्तुतीः प्रकाशयति (पुरः-इयानः) मनः-प्रभृतीनि-अन्तःकरणानि “मन एव पुरः” [काठ० १०।३।५।७] प्राप्नुवन् (वर्पसा-अभिभूत्) स्वरूपेण निर्मलो भवति ॥११॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When the simple, natural and ardent yajaka, having prepared the soma of adoration, shines with his words of praise, then, crossing the physical, pranic, mental and intellectual covers of the soul’s existential state, and breaking into the secret cave of the soul’s divinity by the showers of the grace of the lord giver of life and spiritual strength, he becomes established in his essential nature and shines in his natural spiritual essence.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्ञान इत्यादी गुणाचा प्राप्तकर्ता ज्ञानप्रकाशाने संपन्न होऊन स्तुती वचनांद्वारे परमात्म्याची स्तुती करतो. तो पुन्हा-पुन्हा शरीराच्या इंद्रिय समूहाला चित्तवृत्ती निरोधरूप सुखवर्षक धर्माने क्षीण करतो. अध्यात्म याजक आत्मा, मन, बुद्धी, अहंकाराला आपल्या अनुकूल बनवितो. ॥११॥
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