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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 99 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 99/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वम्रो वैखानसः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स रु॒द्रेभि॒रश॑स्तवार॒ ऋभ्वा॑ हि॒त्वी गय॑मा॒रेअ॑वद्य॒ आगा॑त् । व॒म्रस्य॑ मन्ये मिथु॒ना विव॑व्री॒ अन्न॑म॒भीत्या॑रोदयन्मुषा॒यन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । रु॒द्रेभिः॑ । अश॑स्तऽवारः । ऋभ्वा॑ । हि॒त्वी । गय॑म् । आ॒रेऽअ॑वद्यः । आ । अ॒गा॒त् । व॒म्रस्य॑ । म॒न्ये॒ । मि॒थु॒ना । विव॑व्री॒ इति॒ विऽव॑व्री । अन्न॑म् । अ॒भि॒ऽइत्य॑ । अ॒रो॒द॒य॒त् । मु॒षा॒यन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स रुद्रेभिरशस्तवार ऋभ्वा हित्वी गयमारेअवद्य आगात् । वम्रस्य मन्ये मिथुना विवव्री अन्नमभीत्यारोदयन्मुषायन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । रुद्रेभिः । अशस्तऽवारः । ऋभ्वा । हित्वी । गयम् । आरेऽअवद्यः । आ । अगात् । वम्रस्य । मन्ये । मिथुना । विवव्री इति विऽवव्री । अन्नम् । अभिऽइत्य । अरोदयत् । मुषायन् ॥ १०.९९.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 99; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः) वह (ऋभ्वा) ज्ञानप्रकाशवान् आत्मा (अशस्तवारः) पाप करनेवाला (आरे-अवद्यः) स्वरूप से जो पाप से दूर है तथापि (गयं हित्वी) निज सच्चे गृहरूप परमात्मा को त्यागकर (रुद्रेभिः) प्राणों के साथ-प्राणों से युक्त होकर (वम्रस्य) वमनीय के-त्यक्त विषय के फिर ग्रहण करने से (मन्ये) इसे मान लूँ, ग्रहण कर लूँ, ऐसा सोचकर सेवन करता है (अन्नं मुषायन्) अन्न को चुराता हुआ जैसा (मिथुना विवव्री) माता पिताओं को विशेषरूप से वरणीय मानकर (अभीत्य) प्राप्त कर (अरोदयत्) रोता है ॥५॥

    भावार्थ

    आत्मा स्वरूप से निष्पाप है, परन्तु वासनावश परमात्मा का आश्रय छोड़ कर पाप में प्रवृत्त हो जाता है, प्राणों-इन्द्रियों के सङ्ग से त्यक्त विषयों का पुनः-पुनः वमन की भाँति सेवन करता है, तो संसार में माता-पिताओं को प्राप्त हो रोया करता है बन्धन में आये चोर की भाँति ॥५॥

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    विषय

    अप्रशस्तता से दूर

    पदार्थ

    [१] (सः) = वह ('वम्र') = वासनाओं का उद्गिरण करनेवाला मन्त्र का ऋषि (रुद्रेभिः) = प्राणों के द्वारा, प्राणसाधना के द्वारा (अशस्त - वार:) = सब अशुभों का निवारण करनेवाला होता है । अशुभों का निवारण करके यह ('ऋभ्वा') = [ऋतेन भाति] ऋत से दीप्त होता है। अनृत से यह दूर होकर ऋत से चमक उठता है। [२] (गयम्) = इस शरीररूप गृह को (हित्वी) = धारण करके (आरे अवद्यः) = सब निन्द्य कर्मों से दूर होता हुआ यह (आगात्) = सम्पूर्ण गति को करनेवाला होता है। 'गयम्' का अर्थ [honsehold ] 'गृहस्थ' भी होता है। अपने गृहस्थ को सम्यक् धारण करता हुआ यह निन्द्य कर्मों से ऊपर उठकर प्रभु की ओर जानेवाला होता है । [३] इस (वम्रस्य) = वम्र के (मिथुना) = दोनों द्यावापृथिवी, मस्तिष्क तथा शरीर (विवत्री) = विशिष्टरूपवाले होते हैं, ऐसा (मन्ये) = मैं मानता हूँ। गत मन्त्र के अनुसार इसका मस्तिष्क 'घृतं ' = ज्ञानदीप्ति को लिए हुए होता है और शरीर 'वाः 'सब वरणीय शक्तियों से सम्पन्न होता है। [४] वह वम्र (अन्नं अभि इत्य) = अन्न की ही ओर जाकर, अर्थात् अन्न का ही सेवन करता हुआ, (मुषायन्) = [ to hust, inywe kill] सब वासनाओं का संहार करता हुआ इन आसुरभावों को (अरोदयत्) रुलाता है। देर तक एक स्थान में रहकर आज उन्हें यहाँ से जाना पड़ रहा है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम आसुरताओं से दूर होकर गृहस्थ को सुन्दरता से निभाएँ । वानस्पतिक पदार्थों को सेवन करते हुए वासनाओं से दूर रहें।

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    विषय

    सूर्य के समान आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (ऋभ्वा) प्रकाश वा जल से सामर्थ्यवान् सूर्य वा मेघ अपने (गयम् हित्वी) नियत स्थान वा समुद्र को छोड़ कर आता है (विवव्री मिथुना अभि इत्य) विपरीत रूप वाले मिथुन नक्षत्रों को प्राप्त होकर (अन्नम् मुषायन्) अन्न का नाश करता और (अरोदयत्) रुलाता है, उसी प्रकार (सः) वह (ऋभ्वा) महान् आत्मा (आरे-अवद्यम्) निन्दनीय पापादि से रहित (गयम्) परम शरण रूप प्रभु को (हित्वी) छोड़ कर (अशस्त-वारः) अप्रशस्त, निन्दित मार्ग को वरण कर के (रुद्रेभिः सह आ अगात्) इन प्राणों सहित इस देह में आता है। वह (वम्रस्य) वमन करने वाले, खा २ कर पुनः २ छोड़ने, उगलने वाले इस देह के ही (मिथुना विवव्री) नर नारी रूप नाना दो २ जोड़ों को (अभि इत्य) प्राप्त करके (अन्नम् मुषायन्) अन्नवत् नाना भोगों को प्राप्त करता हुआ (अरोदयत्) प्राणियों को वा अपने को पीड़ित करता है। ऐसा (मन्ये) मानता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वम्रो वैखानसः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ९, १२ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ आसुरी स्वराडार्ची निचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः-ऋभ्वा-अशस्तवारः) स ज्ञानप्रकाशवान्-आत्मा पापस्य वरयिता (आरे-अवद्यः) स्वरूपतो यो अवद्यात् पापाद्-आरे दूरमस्ति तथाभूतः (गयम्-हित्वी) स्वगृहरूपं परमात्मानं त्यक्त्वा (रुद्रेभिः) प्राणैः सह (वम्रस्य) वमनीयस्य त्यक्तविषयस्य पुनर्ग्रहणात् (मन्ये) एतं स्वीकुर्यां गृह्णीयामिति खल्वनुतिष्ठति तदा (अन्नं मुषायन्) अदनीयं भोगं चोरयन्निवाचरन् (मिथुना विवव्री) मिथुनौ मातापितरौ विशेषेण वरणीयाविति मत्वा तौ (अभीत्य) अभिगत्य-अभिप्राप्य (अरोदयत्) रोदयति ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That Indra, mighty energy, free from despicables and undesirables, and possessed of indescribable wealth of force, moves with Rudras, catalytic forces, in serial motion leaving one place for another and, I believe, it gets to the gaseous couple that produce and deliver the waters, and having broken the cloud and taken away the waters, food of life, leaves it roaring.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आत्मा स्वरूपाने निष्पाप आहे; परंतु वासनावश होऊन परमात्म्याचा आश्रय सोडून पापात प्रवृत्त होतो. प्राण व इंद्रियांच्या संगतीत त्याज्य विषयांना पुन्हा पुन्हा वमनाप्रमाणे सेवन करतो. चोर जसा बंधनात येतो तसा तो माता व पिता यांच्या पोटी जन्माला येऊन रडतो. ॥५॥

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