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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 99 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 99/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वम्रो वैखानसः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    सो अ॒भ्रियो॒ न यव॑स उद॒न्यन्क्षया॑य गा॒तुं वि॒दन्नो॑ अ॒स्मे । उप॒ यत्सीद॒दिन्दुं॒ शरी॑रैः श्ये॒नोऽयो॑पाष्टिर्हन्ति॒ दस्यू॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । अ॒भ्रियः॑ । न । यव॑से । उ॒द॒न्यन् । क्षया॑य । गा॒तुम् । वि॒दत् । नः॒ । अ॒स्मे इति॑ । उप॑ । यत् । सीद॑त् । इन्दु॑म् । शरी॑रैः । श्ये॒नः । अयः॑ऽअपाष्टिः । ह॒न्ति॒ । दस्यू॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सो अभ्रियो न यवस उदन्यन्क्षयाय गातुं विदन्नो अस्मे । उप यत्सीददिन्दुं शरीरैः श्येनोऽयोपाष्टिर्हन्ति दस्यून् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । अभ्रियः । न । यवसे । उदन्यन् । क्षयाय । गातुम् । विदत् । नः । अस्मे इति । उप । यत् । सीदत् । इन्दुम् । शरीरैः । श्येनः । अयःऽअपाष्टिः । हन्ति । दस्यून् ॥ १०.९९.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 99; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः) वह मनुष्य  (अभ्रियः-न) अभ्रसमूहों की भाँति उपकारी होकर (यवसे) अन्न के लिए-अन्नवृद्धि के लिए (उदन्यन्) जल को प्राप्त करता हुआ (अस्मे) हमारे (क्षयाय) निवास या जीवनवृद्धि के लिए (यत्) जिससे (नः) हमारे लिए (गातुम्-शरीरैः) पृथिवी को-पृथिवी-भूमि-कृषिभूमि के शरीरों शरीराङ्गों शारीरिक परिश्रमों से (विदन्) सुफलितरूप में प्राप्त करता है (श्येनः) प्रशंसनीय ऐसा जन (इन्दुम्) आनन्दरसपूर्ण परमात्मा को (उपसीदत्) प्राप्त करता है (अयः-अपाष्टिः) लोहे की एड़ीवाला जैसा स्थिर-अडिग हुआ (दस्यून् हन्ति) क्षीण करनेवाले दुष्काल चोर आदि को नष्ट करता है ॥८॥

    भावार्थ

    कृषक जन मेघ के समान उपकारी होकर कृषि भूमि द्वारा जीवनरक्षणार्थ अन्न को उत्पन्न करता है, वह प्रशंसनीय महानुभाव दुष्काल चोर आदि की वृद्धि नहीं होने देता और स्वयं परमात्मा का प्रिय बनता है ॥८॥

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    विषय

    इन्दु का उपासन

    पदार्थ

    [१] (सः) = वे प्रभु, (न) = जिस प्रकार (अभ्रिय:) = मेघसमूह (यवसे) = भूमि में घास आदि की उत्पत्ति के लिए (उदन्यन्) = जल को देने की कामनावाला होता है उसी प्रकार, (नः क्षयाय) = हमारे उत्तम निवास व गति के लिए (अस्मे) = हमारे लिये (गातुं विदत्) = मार्ग को (विदत्) = प्राप्त कराते हैं । इस मार्ग पर चलकर हम अपने निवास को उत्तम बना पाते हैं । [२] (यत्) = जिस समय एक उपासक (शरीरै:) = अपने 'स्थूल, सूक्ष्म व कारण' नामक सब शरीरों से (इन्दुम्) = उस शक्तिशाली प्रभु का (उपसीदत्) = उपासन करता है, अर्थात् इन सब शरीरों की क्रियाओं को प्रभु स्मरणपूर्वक करता है तो वह (श्येनः) = शंसनीय गतिवाला होता है तथा (अयः अपाष्टि:) = लोहे की एडीवाला होता हुआ, अर्थात् दृढ़ शरीरवाला होता हुआ (दस्यून्) = इन दस्युओं को (हन्ति) = नष्ट कर देता है। दास्यव वृत्तियों को अपने से दूर भगा देता है। लोहे की एड़ीवाला इन शब्दों का प्रयोग ऐसा संकेत करता है कि वह इन दस्युओं को ठोकर मारकर दूर कर देता है [ kicks than away ]।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें मार्गदर्शन कराते हैं, जिस पर कि चलकर हम उत्तम निवासवाले बन पाएँ । प्रभु की उपासना से हमें वह शक्ति प्राप्त होती है जिससे कि हम दास्यव वृत्तियों को नष्ट करनेवाले होते हैं ।

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    विषय

    मेघ के तुल्य राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यवसे न) जिस प्रकार जौ आदि अन्न की पुष्टि के लिये (उदन्यन्) जल से पूर्ण होकर (अभ्रियः) मेघसंघ (गातुम् विदत्) भूमि को प्राप्त करता है, बरसता है उसी प्रकार (नः क्षयाय) हमारे ऐश्वर्य को बढ़ाने के लिये (सः) वह प्रभु, राजा भी (नः गातुम् विदत्) हमारी प्रार्थना को प्राप्त करे। (अस्मे श्येनः) हमारे बीच में प्रशंसनीय आचार चरित्रवान् (यत्) जो पुरुष (शरीरैः) नाना शरीरों से जन्म-जन्मान्तरों से (इन्दुम्) उस परमैश्वर्यवान्, दयालु, तेजस्वी को (उप सीदत्) प्राप्त कर लेता है तब वह (अयः-अपाष्टिः) लोह की बनी एड़ी वाले पुरुष के समान बलशाली, (अयः-अपाष्टिः) आवागमन से दूर व्यापक आत्मा वाला होकर (दस्यून् हन्ति) नाशकारी काम, क्रोधादि को शत्रुओं के तुल्य (हन्ति) नष्ट करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वम्रो वैखानसः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ९, १२ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ आसुरी स्वराडार्ची निचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः) स जनः (अभ्रियः-न यवसे) अभ्राणां समूहोऽभ्रियो मेघसङ्घातो गहनमेघ इवान्नायान्नवर्धनाय “यवसं धान्यफलादिकम्” [ऋ० ३।४५।३ दयानन्दः] “यवसादः ये यवसमन्नादिकमदन्ति ते” [ऋ० १।८४।११ दयानन्दः] (उदन्यन्) जलं प्रापयन् (अस्मे क्षयाय) अस्माकं निवासाय समर्धनाय वा (यत्) यतः (नः-गातुम्) अस्मभ्यं पृथिवीं कृषिभूमिं सुफलितां (शरीरैः) शरीराङ्गैः शारीरिकश्रमैः (विदन्) प्राप्नोति (श्येनः) प्रशंसनीयजनः (इन्दुम्-उपसीदत्) आनन्दरसवन्तं परमात्मानं प्राप्नोति (अयः-अपाष्टिः) अयसः पार्ष्णिर्यस्य तथाविधः सन् (दस्यून् हन्ति) उपक्षयकर्तॄन् दुष्काल-चोरादीन्  नाशयति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Just as the cloud waxing with water vapours goes down in showers on earth for the nourishment of fields and pastures, so does Indra, ruling soul, overflowing with generosity, goes forward to the earth for our peaceful home life and with the iron spur of his heels strikes and drives away the evils around us, since he, a tempestuous soul in body like the eagle, sits close to the Indu, blissful source of the nectar of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शेतकरी मेघाप्रमाणे उपकारी बनून शेतीद्वारे जीवनरक्षणार्थ अन्न उत्पन्न करतो. तो प्रशंसनीय असतो. दुष्काळ, चोर इत्यादीची वृद्धी होऊ देत नाही व स्वत: परमात्म्याचा प्रिय बनतो. ॥८॥

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