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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 99 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 99/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वम्रो वैखानसः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स व्राध॑तः शवसा॒नेभि॑रस्य॒ कुत्सा॑य॒ शुष्णं॑ कृ॒पणे॒ परा॑दात् । अ॒यं क॒विम॑नयच्छ॒स्यमा॑न॒मत्कं॒ यो अ॑स्य॒ सनि॑तो॒त नृ॒णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । व्राध॑तः । श॒व॒सा॒नेभिः॑ । अ॒स्य॒ । कुत्सा॑य । शुष्ण॑म् । कृ॒पणे॑ । परा॑ । अ॒दा॒त् । अ॒यम् । क॒विम् । अ॒न॒य॒त् । श॒स्यमा॑नम् । अत्क॑म् । यः । अ॒स्य॒ । सनि॑ता । उ॒त । नृ॒णाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स व्राधतः शवसानेभिरस्य कुत्साय शुष्णं कृपणे परादात् । अयं कविमनयच्छस्यमानमत्कं यो अस्य सनितोत नृणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । व्राधतः । शवसानेभिः । अस्य । कुत्साय । शुष्णम् । कृपणे । परा । अदात् । अयम् । कविम् । अनयत् । शस्यमानम् । अत्कम् । यः । अस्य । सनिता । उत । नृणाम् ॥ १०.९९.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 99; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः) वह ऐश्वर्यवान् परमात्मा (शवसानेभिः) बहुत बलवान् उपायों से (व्राधतः) अत्यन्त बड़े शत्रुओं-विरोधियों को (अस्य) ताड़ित करता है (कुत्साय) स्तुति करनेवाले (कृपणे) अर्चना करनेवाले-स्वात्मसमर्पण करनेवाले के लिए (शुष्णम्) शोषक बल को (परादात्) परे करता है-हटाता है-दूर करता है (नृणां-यः) नरों में जो नर-मनुष्य (अस्य-सनिता) उस परमात्मा का सम्भजन करनेवाला (अयम्) वह यह उपासक (शस्यमानम्) प्रशंसनीय स्तुति करने योग्य (कविम्) क्रान्तदर्शी (अत्कम्) अतनशील व्यापक परमात्मा को (अनयत्) अपने आत्मा में लाता है, साक्षात् करता है ॥९॥

    भावार्थ

    परमात्मा विरोधियों को महान् बलों से परास्त करता है, अपने उपासकों से शोषणबलों को दूर रखता है। जो मनुष्य उसका उपासक होता है, वह उस व्यापक परमात्मा को अपने अन्दर साक्षात् करता है ॥९॥

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    विषय

    शत्रु विध्वंस व लक्ष्य प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! (सः) = वे आप (व्राधतः) = [महतः ] बड़े शक्तिशाली भी शत्रुओं को (शवसानेभिः) = शक्तिशाली आयुधों से [बलयाचरद्भिः आयुधैः सा० ] (अस्य) = [असु क्षेपणे] परे फेंकिये। 'शवसानं' शब्द श्मशान के लिए भी आता है। इन शत्रुओं को आप श्मशान के हेतु से फेंकिये, अर्थात् इनका दहन ही कर दीजिए। [२] वे प्रभु (कुत्साय) = वासनाओं का संहार करनेवाले (कृपणे) = [to prty ] सब भूतों पर दया करनेवाले व्यक्ति के लिए (शुष्णम्) = हमारा शोषण करनेवाले 'काम' नामक असुर को (परादात्) = [पराभूय खण्डितवान् सा०, दाप् लबने] खण्डित करके सुदूर विनष्ट करते हैं । [३] (अयम्) = ये प्रभु (शस्यमानम्) = स्तुति करते हुए (कविम्) = तत्त्वद्रष्टा पुरुष को (अनयत्) = सुमार्ग पर ले चलते हैं। (उत) = और (नृणाम्) = मनुष्यों में (यः) = जो (अस्य) = इस प्रभु के (अत्कम्) = कवच को (सनिता) = उपासित करता है व प्राप्त करता है उसे प्रभु लक्ष्य स्थान पर पहुँचाते हैं। [ अत्कं = armous] प्रभु को कवच बना करके चलनेवाला आसुरवृत्तियों से पराजित नहीं होता। यह आगे बढ़ता हुआ लक्ष्य को प्राप्त करता है |

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे शत्रुओं को नष्ट करते हैं और हमें लक्ष्य पर पहुँचाते हैं ।

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    विषय

    प्रभु की भक्त पर कृपा।

    भावार्थ

    (सः) वह (व्राधतः) महान् प्रभु (शवसानेभिः) बलशाली उपायों से (कुत्साय) निन्दाकारी दुष्ट जन को दण्ड देने के लिये उस पर (शुष्णम्) शोषक, संतापक-दुःख जनक कष्ट (अस्य) डालता और (कृपणे) प्रार्थना करने वाले भक्त पर आये (शुष्णम्) दुःख को परा (अदात्) दूर कर देता है। और (यः) जो (नृणां) मनुष्यों के बीच में (अस्य) इस के (अत्कं) व्यापक रूप वा ज्ञान को (सनिता) प्रदान करता है उस (कविम्) क्रान्तदर्शी विद्वान् को (प्रयम् शस्यमानं) यह प्रशंसनीय पद (अनयत्) प्राप्त कराता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वम्रो वैखानसः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ९, १२ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ आसुरी स्वराडार्ची निचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः) इन्द्रः-ऐश्वर्यवान् परमात्मा (शवसानेभिः) अभिबलायमानैः-बहुबलवद्भिरुपायैः “शवसानम्-अभिबलायमानम्” [निरु० १०।३] (व्राधतः) महतोऽति प्रवृद्धान्-शत्रून् विरोधिनः “व्राधत्-महन्नाम” [निघ० ३।३] “व्राधतः-अतिप्रवृद्धान् शत्रून्” [ऋ० १।१००।९ दयानन्दः] (अस्य) अस्यति ताडयति ‘पुरुषव्यत्ययः’ (कुत्साय कृपणे शुष्णं परादात्) स्तुतिकर्त्रे “कुत्सः कर्त्ता स्तोमानाम्” [निरु० ३।११] अर्चकाय स्वात्मसमर्पणाय “कृपण्यति-अर्चतिकर्मा” [निघ० ३।१४] शोषकं बलं पराकरोति (नृणां यः-अस्य सनिता) नराणां यो नरो मनुष्यो-अस्य परमात्मनः-सम्भक्तः-उपासकः (अयं शस्यमानं कविम्-अत्कम्-अनयत्) सोऽयमुपासकः प्रशंसनीयं स्तोतव्यं क्रान्तदर्शिनमतनशीलं व्याप्तं परमात्मानम् “अत्कं व्याप्तम्” [ऋ० ५।७४।४ दयानन्दः] स्वात्मनि खल्वानयति साक्षात्करोति ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    He throws off the violent with his powerful forces, he removes drought and adversity, and he thereby gives strength and confidence to the supplicant devotee. He leads that man of vision and imagination to the heights of fame and admiration who, of all men, knows his real form and nature and in his spirit realises his divine presence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा विरोधी लोकांना महान बलांनी पराभूत करतो. आपल्या उपासकांना शोषण बलांपासून दूर ठेवतो. जो मनुष्य त्याचा उपासक असतो. तो त्या व्यापक परमात्म्याला आपल्यामध्ये साक्षात करतो. ॥९॥

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