ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 99/ मन्त्र 6
ऋषिः - वम्रो वैखानसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स इद्दासं॑ तुवी॒रवं॒ पति॒र्दन्ष॑ळ॒क्षं त्रि॑शी॒र्षाणं॑ दमन्यत् । अ॒स्य त्रि॒तो न्वोज॑सा वृधा॒नो वि॒पा व॑रा॒हमयो॑अग्रया हन् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । इत् । दास॑म् । तु॒वि॒ऽरव॑म् । पतिः॑ । दन् ष॒ट्ऽऽअ॒क्षम् । त्रि॒ऽशी॒र्षाणम् । द॒म॒न्य॒त् । अ॒स्य । त्रि॒तः । नु । ओज॑सा । वृ॒धा॒नः । वि॒पा । व॒रा॒हम् । अयः॑ऽअग्रया । ह॒न्निति॑ हन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स इद्दासं तुवीरवं पतिर्दन्षळक्षं त्रिशीर्षाणं दमन्यत् । अस्य त्रितो न्वोजसा वृधानो विपा वराहमयोअग्रया हन् ॥
स्वर रहित पद पाठसः । इत् । दासम् । तुविऽरवम् । पतिः । दन् षट्ऽऽअक्षम् । त्रिऽशीर्षाणम् । दमन्यत् । अस्य । त्रितः । नु । ओजसा । वृधानः । विपा । वराहम् । अयःऽअग्रया । हन्निति हन् ॥ १०.९९.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 99; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सः) वह (त्रितः) तीन-स्थूल सूक्ष्म कारणशरीरों में वर्तमान आत्मा (यतिः) इन्द्रियों का स्वामी (तुवीरवम्) बहुत शब्दकारी-याचनारूप पुनः-पुनः शब्द करनेवाले (दासम्) उपक्षयकारी कामभाव (षळक्षम्) पाँच नेत्रादि इन्द्रिय और एक मन व्यक्त करने के साधन जिसके हैं, उस ऐसे (त्रिशीर्षाणम्) तीन-लोभ राग मोह शिर के समान जिसके हैं, उस ऐसे को (इत्) ही (दन्-दमन्यत्) दमन करता हुआ दमन करता है (अस्य) यह आत्मा (ओजसा) स्वात्मबल से (वृधानः) बढ़ता हुआ (विपा) मेधा से तथा वेदवाणी से (अयो अग्रया) छुरे की तीक्ष्ण धारा के समान जैसे (वराहं-नु-अहन्) निकृष्टभोजी शूकर के सदृश उस कामभाव को नष्ट करता है अथवा वर-आहार-श्रेष्ठ-आहार जिससे प्राप्त होता है, उस परमात्मा को प्राप्त होता है ॥६॥
भावार्थ
स्थूल सूक्ष्म कारण शरीरों को प्राप्त होनेवाला आत्मा इन्द्रियों और मन से व्यक्त होनेवाले लोभ, राग, मोहपरायण, निकृष्टभोजी, शूकर की भाँति कामभाव को दमन करता हुआ, वश करता हुआ नष्ट करता है तथा कामभाव को नष्ट करके परमात्मा को प्राप्त करता है ॥६॥
विषय
'षडक्ष त्रिशीर्षा' दास का वध
पदार्थ
[१] (सः) = गत मन्त्र में वर्णित 'वम्र' (इत्) = निश्चय से (पतिः) = अपनी इन्द्रियों, मन व बुद्धि का स्वामी होता हुआ (तुवीरवम्) = बढ़-चढ़कर बोलनेवाले मेरे समान कौन है 'ईश्वरोहम्' मैं ही तो ईश्वर हूँ इस प्रकार शेखी बघारनेवाले (दासम्) = आसुरभाव का (दन्) = दमन करता हुआ (षडक्षम्) = ' पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ व छठा मन' इन छह आँखोंवाले (त्रिशीर्षाणम्) = 'काम, क्रोध, लोभ' रूप तीन सिरोंवाले इस दास को (दमन्यत्) = कुचलनेवाला होता है। [२] (नु) = अब (त्रितः) = ' काम, क्रोध, लोभ' इन तीनों को तैर जानेवाला (अस्य) = इस प्रभु के (ओजसा वृधान:) = ओज से बढ़ता हुआ, (अयो अग्रया) = लोह (सूचिकावत्) = तीक्ष्ण अग्रभागवाली (विपा) = बुद्धि से (वराहम्) = उस सब श्रेष्ठ पदार्थों के प्राप्त करानेवाले प्रभु को (हन्) = प्राप्त होता है [ हन् गतौ ] । 'काम-क्रोध-लोभ' के कारण 'शरीर, मन व बुद्धि' की दुर्गति हो जाती है। इन कामादि को तैरनेवाला शरीर, मन व बुद्धि को शक्ति सम्पन्न बनाता है और तीव्र बुद्धि से प्रभु-दर्शन कर पाता है।
भावार्थ
भावार्थ - हम 'षडक्ष त्रिशीर्षा' दास का दमन करके तीव्र बुद्धि के द्वारा प्रभु को प्राप्त हों ।
विषय
वर्ष के स्वामी सूर्यवत् देह में आत्मा की स्थिति। त्रिशीर्षा षडक्ष, त्रित, वराह आदि का रहस्य।
भावार्थ
(सः इत् पतिः) वह ही आत्मा का स्वामी, (तुवि-रवम्) बहुत शब्द करने वाले गर्जनाशील (दासम्) नाशकारी दुष्ट मन को वा इन्द्रिय-भृत्यादि को (दन्) दमन करता हुआ (षड् अक्षम्) ६ आंखों वाले और (त्रि-शीर्षाणम्) तीन शिरों वाले वर्ष को सूर्य के समान इस देह को जिस में मन सहित छः इन्द्रियों वाले और शिरोवत् तीन धातुएं वा पेट हृदय और मस्तक ऐसे मुख्य अंगों वाले देह को (दमन्यत्) वश करता है। वह (त्रितः) तीनों लोकों में व्यापक वा तीनों दुखों से मुक्त आत्मा (ओजसा) अपने बल से (वृधानः) बढ़ता हुआ, (अयः-अग्रया) लोहे की सूई की धार के समान तीक्ष्ण (विपा) बुद्धि से (वराहम् हन्) सर्वश्रेष्ठ प्रभु को प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वम्रो वैखानसः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ९, १२ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ आसुरी स्वराडार्ची निचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सः-त्रितः) स त्रिषु स्थूलसूक्ष्मकारणशरीरेषु वर्त्तमान आत्मा (पतिः) इन्द्रियाणां स्वामी (तुवीरवम्) बहुशब्दकारिणम् (दासम्) उपदसनीयं कामं कामभारं (षळक्षम्) नेत्रादीनि पञ्चेन्द्रियाणि मनश्च व्यक्तीकरण-साधनानि यस्य तथाभूतं (त्रिशीर्षाणम्) लोभरागमोहाः शिरोवत् सन्ति यस्य तथाभूतं (इत्) खलु (दन्-दमन्यत्) दमयन् दमयति (अस्य) अयम् “व्यत्ययेन षष्ठी” (ओजसा) आत्मबलेन (वृधानः) वर्धमानः (विपा) मेधया यया स विपश्चित्-मेधावी “विपश्चित् मेधाविनाम” [निघ० ३।१५] तया मेधया यद्वा वेदवाचा “विपा वाङ्नाम” [निघ० १।११] (अयो-अग्रया) क्षुरस्य धारयेव तीक्ष्णया (वराहम्-नु-अहन्) निकृष्टभोजिनं शूकरसदृशं कामभावमवश्यं हन्ति यद्वा वराहारं “वराहः-वराहारः” [निरु० ९।५] श्रेष्ठमाहारं यस्मात् प्राप्यते तं परमात्मानं प्राप्नोति “हन् हिंसागत्योः” [अदादि०] ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That Indra, sustainer of life, attacking the six eyed three-headed cloud, subdues it, and Trita, threefold Agni power, rising by the power and lustre of Indra, with currents sharp as razor’s edge, breaks the cloud and delivers the rain.$(The cloud is six eyed because it is active and awake all the six seasons of the year. It is three headed because it arises from three regions: from the solar region as soma, from the middle regions as parjanya and from the earthly region as water vapour.$Agni is threefold, Trita, because it has three varieties of its form and function: terrestrial fire as agni, middle region vayu or electric energy, and solar region aditya or light, and all of them play their part in the formation of the cloud in the form of water vapour on earth, parjanya in the middle region and soma in the solar region.)
मराठी (1)
भावार्थ
स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरांना प्राप्त होणारा आत्मा इंद्रिये व मनाने व्यक्त होणारे लोभ, राग, मोह परायण निकृष्ट भोजी शूकराप्रमाणे असणारे कामभाव दमन करत वश करत नष्ट करतो व कामभाव नष्ट करून परमात्म्याला प्राप्त करतो. ॥६॥
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