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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 22/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः

    तव॒ त्यन्नर्यं॑ नृ॒तोऽप॑ इन्द्र प्रथ॒मं पू॒र्व्यं दि॒वि प्र॒वाच्यं॑ कृ॒तम्। यद्दे॒वस्य॒ शव॑सा॒ प्रारि॑णा॒ असुं॑ रि॒णन्न॒पः। भुव॒द्विश्व॑म॒भ्यादे॑व॒मोज॑सा वि॒दादूर्जं॑ श॒तक्र॑तुर्वि॒दादिष॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑ । त्यत् । नर्य॑म् । नृ॒तो॒ इति॑ । अपः॑ । इ॒न्द्र॒ । प्र॒थ॒मम् । पू॒र्व्यम् । दि॒वि । प्र॒ऽवाच्य॑म् । कृ॒तम् । यत् । दे॒वस्य॑ । शव॑सा । प्र । अरि॑णा । असु॑म् । रि॒णन् । अ॒पः । भुव॑त् । विश्व॑म् । अ॒भि । अदे॑वम् । ओज॑सा । वि॒दात् । ऊर्ज॑म् । श॒तऽक्र॑तुः । वि॒दात् । इष॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव त्यन्नर्यं नृतोऽप इन्द्र प्रथमं पूर्व्यं दिवि प्रवाच्यं कृतम्। यद्देवस्य शवसा प्रारिणा असुं रिणन्नपः। भुवद्विश्वमभ्यादेवमोजसा विदादूर्जं शतक्रतुर्विदादिषम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तव। त्यत्। नर्यम्। नृतो इति। अपः। इन्द्र। प्रथमम्। पूर्व्यम्। दिवि। प्रऽवाच्यम्। कृतम्। यत्। देवस्य। शवसा। प्र। अरिणा। असुम्। रिणन्। अपः। भुवत्। विश्वम्। अभि। अदेवम्। ओजसा। विदात्। ऊर्जम्। शतऽक्रतुः। विदात्। इषम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 22; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 28; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    सूर्य का जिस प्रकार ( दिवि ) प्रकाश के आधार पर ( इदं प्रथमं नर्यं प्रवाच्यं कृतम् अपः भवति ) यह सर्वश्रेष्ठ, मनुष्यों का उपकारक,प्रशंसनीय कर्म हुआ करता है कि ( देवस्य शवसा ) जलप्रद मेघ, या देदीप्यमान विद्युत् या तेज के बल से ( अपः रिणन् ) वृष्टि द्वारा जल को लाकर ( असुं प्र अरिणाः ) समस्त जीवों को जल प्राप्त कराता है। अथवा ( देवस्य शवसा ) सूर्य के प्रकाश के बल से ( असुं रिणन् ) मेघों को इधर उधर फैकने वाले वायु को चलाकर ( अपः अरिणाः ) मेघस्थ जलों को प्रदान करता है । और ( अदेवं ) देव, जलप्रद मेघ से रहित ( विश्वं ) समस्त संसार को ( ओजसा ) बल पराक्रम, से ( अभि भुवत् ) अपने वश करता, उसमें सर्वोपरि रहता है । सूर्य ही (शतक्रतुः) सैकड़ों कर्म करने वाला होकर ( ऊर्जम् ) बल कारक (इषम् ) अन्न ( विदात् ) विशेष रूपों से प्रदान करता या स्वयं ( विदात् ) लाभ कराता है । उसी प्रकार हे परमेश्वर ! हे ( नृतो ) समस्त संसार को अपनी शक्ति से नचाने हारे, अपनी इच्छानुसार चलाने हारे हे ( इन्द्र ) सर्वैश्वर्यवन् ! ( तत्र ) तेरा ही ( त्यत् ) वह ( नर्यं ) समस्त नरों और विश्व देह और नर समाज के नायकों, सूर्यादि, लोकों, प्राणों और विद्वानों का हितकारी, ( प्रथमम् ) सब से प्रथम, अतिविस्तृत, सर्वश्रेष्ठ ( पूर्व्यम् ) सब से पूर्व, सब से पूर्ण, सब का पालक ( कृतम् ) कार्य (दिवि) ज्ञान में और प्रकाश के आश्रय पर, या आकाश में ( प्रवाच्यं ) अच्छी प्रकार वर्णन करने और प्रवचन द्वारा शिष्यों को उपदेश करने योग्य है ( यत् ) कि ( देवस्य ) देदीप्यमान सूर्य या अग्नितत्व के बल से ( असुं ) प्राण या वायु तत्व को ( रिणन् ) गति देता हुआ ( अपः प्र अरिणाः ) जल तत्व में गति उत्पन्न करता है अथवा अग्नि तत्व के बल से ( अपः रिणन् असुं प्रारिणाः ) जलों में व्यापकर प्राण तत्व को प्रकट करता है । ( अदेवम् विश्वम् ) देव रहित प्रकाश रहित, समस्त संसार को अपने ( ओजसा ) तेजः पराक्रम, शक्ति से ( अभि भवत् ) व्याप रहा है, उसको अपने अधीन चला रहा है। तू ( शतक्रतुः ) सैकड़ों कर्म और ज्ञानों का स्वामी होकर ( ऊर्जम् ) बल ( विदात् ) देता और ( इषम् ) प्रेरणा को भी ( विदात् ) प्रदान करता है । इत्यष्टाविंशो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः-१ अष्टिः । २ निचृदतिशक्वरी । ४ भुरिगतिशक्वरी । ३ स्वराट् शक्वरी ॥ चतुऋचं सूक्तम् ॥

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