ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
धृत॑व्रता॒ आदि॑त्या॒ इषि॑रा आ॒रे मत्क॑र्त रह॒सूरि॒वागः॑। शृ॒ण्व॒तो वो॒ वरु॑ण॒ मित्र॒ देवा॑ भ॒द्रस्य॑ वि॒द्वाँ अव॑से हुवे वः॥
स्वर सहित पद पाठधृत॑ऽव्रताः । आदि॑त्याः । इषि॑राः । आ॒रे । मत् । क॒र्त॒ । र॒ह॒सूःऽइ॑व । आगः॑ । शृ॒ण्व॒तः । वः॒ । वरु॑ण । मित्र॑ । देवाः॑ । भ॒द्रस्य॑ । वि॒द्वान् । अव॑से । हु॒वे॒ । वः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
धृतव्रता आदित्या इषिरा आरे मत्कर्त रहसूरिवागः। शृण्वतो वो वरुण मित्र देवा भद्रस्य विद्वाँ अवसे हुवे वः॥
स्वर रहित पद पाठधृतऽव्रताः। आदित्याः। इषिराः। आरे। मत्। कर्त। रहसूःऽइव। आगः। शृण्वतः। वः। वरुण। मित्र। देवाः। भद्रस्य। विद्वान्। अवसे। हुवे। वः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 29; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
विषय - व्रतधारी विद्वानों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
हे ( धृतव्रताः ) नियम व्यवस्थाओं के स्थिर करने और प्रजा के रक्षण शिक्षण आदि के व्रतों को धारण और रक्षा करने हारे ! ( आदित्याः ) तेजस्वी विद्वान् वीर पुरुषो ! आप लोग ( इषिराः ) प्रबल इच्छा, ज्ञान और कर्म वाले होकर ( रहसूः ) एकान्त में सन्तानोत्पत्ति करने वाली व्यभिचारिणी स्त्री के समान ( आगः ) पाप आदि अपराध को ( मत् ) मुझ प्रजाजन से ( आरे ) दूर ही ( कर्त्त ) करो । हे ( वरुण, मित्र, देवाः ) सर्वश्रेष्ठ राजन् ! मित्रवद् गुरो ! न्यायकारिन् ! हे विद्वान् पुरुषो ! ( शृण्वतः वः ) आप लोगों के सुनते हुए मैं ( विद्वान् ) ज्ञानवान् पुरुष ( वः ) आप लोगों को ( भद्रस्य अवसे ) प्रजा के सुख और कल्याण की रक्षा करने और प्रजा का भद्र, सुख कल्याण, ऐश्वर्य का दान देने के लिये आप से ( हुवे ) प्रार्थना करता हूं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा ऋषिः ॥ विश्वदेवा देवता ॥ छन्दः- १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ६, ७ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
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