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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 13
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अपान्नपात् छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स ईं॒ वृषा॑जनय॒त्तासु॒ गर्भं॒ स ईं॒ शिशु॑र्धयति॒ तं रि॑हन्ति। सो अ॒पां नपा॒दन॑भिम्लातवर्णो॒ऽन्यस्ये॑वे॒ह त॒न्वा॑ विवेष॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । ई॒म् । वृषा॑ । अ॒ज॒न॒य॒त् । तासु॑ । गर्भ॑म् । सः । ई॒म् । शिशुः॑ । ध॒य॒ति॒ । तम् । रि॒ह॒न्ति॒ । सः । अ॒पाम् । नपा॑त् । अन॑भिम्लातऽवर्णः । अ॒न्यस्य॑ऽइव । इ॒ह । त॒न्वा॑ । वि॒वे॒ष॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स ईं वृषाजनयत्तासु गर्भं स ईं शिशुर्धयति तं रिहन्ति। सो अपां नपादनभिम्लातवर्णोऽन्यस्येवेह तन्वा विवेष॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। ईम्। वृषा। अजनयत्। तासु। गर्भम्। सः। ईम्। शिशुः। धयति। तम्। रिहन्ति। सः। अपाम्। नपात्। अनभिम्लातऽवर्णः। अन्यस्यऽइव। इह। तन्वा। विवेष॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 13
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    जिस प्रकार ( वृषा तासु गर्भं अजनयत् ) वर्षा करने वाला सूर्य उन दिशाओं में ‘गर्भ’ अर्थात् जल से पूर्ण वायु मण्डल को उत्पन्न करता है । ( सः ईं शिशुः धयति) और वही छोटे बालक के समान समुद्रादि से रसका पान करता है ( तं रिहन्ति ) उसको समस्त दिशाएं बछड़े को गौओं के समान स्पर्श करती हैं ( सः अपां नपाद् ) वह सूर्य लोकों और वर्षा जलों का उत्पादक होकर भी ( अनभिम्लात-वर्णः ) क्षीण तेज न होकर ( अन्यस्येव तन्वा ) मानों दूसरे अग्नि और विद्युत् प्रकाश रूप से ( इह विवेष ) इस जगत् में व्यापता है । इसी प्रकार ( सः ) वह ( ईम् ) भी ( वृषा ) वीर्यसेचक पुरुष ( तासु ) उन वरण करने वाली सह धर्मचारिणी दाराओं में ( गर्भम् ) गर्भ को (अजनयत् ) उत्पन्न करे । ( सः ) वह ( ईं ) इस प्रकार (शिशुः) बालक स्वरूप होकर ( धयति ) दुग्ध पान करता है । ( तं रिहन्ति ) उसी को मानो माताएं बछड़ों को गौओं के समान चूमती हैं । ( सः ) वह ( अपां नपात् ) अपने प्राप्त दाराओं के अपत्य होकर ( अनभिम्लात-वर्णः) अक्षीण तेज होकर ( अन्यस्य इव ) मानों दूसरे के ( तन्वा ) देह से ( इह ) इस लोक में ( विवेष ) व्यापता है । अर्थात् वह पति ही पुत्र के देह से पुनः गर्भ में आता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः॥ अपान्नपाद्देवता॥ छन्दः– १, ४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। ११ विराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। २, ३, ८ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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