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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 14
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अपान्नपात् छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒स्मिन्प॒दे प॑र॒मे त॑स्थि॒वांस॑मध्व॒स्मभि॑र्वि॒श्वहा॑ दीदि॒वांस॑म्। आपो॒ नप्त्रे॑ घृ॒तमन्नं॒ वह॑न्तीः स्व॒यमत्कैः॒ परि॑ दीयन्ति य॒ह्वीः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मिन् । प॒दे । प॒र॒मे । त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । अ॒ध्व॒स्मऽभिः॑ । वि॒श्वहा॑ । दीदि॒ऽवांस॑म् । आपः॑ । नप्त्रे॑ । घृ॒तम् । अन्न॑म् । वह॑न्तीः । स्व॒यम् । अत्कैः॑ । परि॑ । दी॒य॒न्ति॒ । य॒ह्वीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मिन्पदे परमे तस्थिवांसमध्वस्मभिर्विश्वहा दीदिवांसम्। आपो नप्त्रे घृतमन्नं वहन्तीः स्वयमत्कैः परि दीयन्ति यह्वीः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मिन्। पदे। परमे। तस्थिऽवांसम्। अध्वस्मऽभिः। विश्वहा। दीदिऽवांसम्। आपः। नप्त्रे। घृतम्। अन्नम्। वहन्तीः। स्वयम्। अत्कैः। परि। दीयन्ति। यह्वीः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 14
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    जिस प्रकार ( यह्वीः ) बड़ी नदियां या जलधारायें ( अस्मिन् परमे पदे ) इस सर्वोच्च परम पद, आकाश में ( तस्थिवांसं ) स्थित और ( अध्वस्मभिः ) अविनश्वर तेजों से ( दीदिवांसं ) दीप्त होते हुए सूर्य का ( अत्कैः परि दीयन्ति ) जलों के निमित्त आश्रय लेती हैं और ( नप्त्रे ) जलों के बांधने वाले बल से ( घृतम् अन्नं वहन्तीः ) जल और अन्न को प्राप्त करती हैं । उसी प्रकार ( परमे पदे ) सबसे उत्कृष्ट पद पर ( तस्थिवांसं ) स्थित ( अध्वस्मभिः ) नाश को प्राप्त न होने वाले, अक्षय और अमोघ वीर्यों से ( विश्वहा ) सब दिनों ( दीदिवांसं ) सूर्य के समान चमकने वाले तेजस्वी पुरुष को ( आपः ) प्राप्त होने वाली, स्वयं वरण करने हारी सहधर्मिणी जलस्वभाव होकर ( अत्कैः ) उत्तम रूपों से सुसज्जित होकर ( स्वयम् ) आप से आप ( यह्वीः ) गुणों में उत्कृष्ट महान् होकर ( परि दीयन्ति ) उसके पास आती हैं । ( नप्त्रे ) विवाह बंधन से बांधने वाले उसके लिये ( घृतम् ) घृतयुक्त पुष्टिकारक ( अन्नं ) अन्न को ( वहन्तीः ) प्राप्त करती हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः॥ अपान्नपाद्देवता॥ छन्दः– १, ४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। ११ विराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। २, ३, ८ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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