ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 38/ मन्त्र 8
या॒द्रा॒ध्यं१॒॑ वरु॑णो॒ योनि॒मप्य॒मनि॑शितं नि॒मिषि॒ जर्भु॑राणः। विश्वो॑ मार्ता॒ण्डो व्र॒जमा प॒शुर्गा॑त्स्थ॒शो जन्मा॑नि सवि॒ता व्याकः॑॥
स्वर सहित पद पाठया॒त्ऽरा॒ध्य॑म् । वरु॑णः । योनि॑म् । अप्य॑म् । अनि॑ऽशितम् । नि॒ऽमिषि॑ । जर्भु॑राणः । विश्वः॑ । मा॒र्ता॒ण्डः । व्र॒जम् । आ । प॒शुः । गा॒त् । स्थ॒ऽशः । जन्मा॑नि । स॒वि॒ता । वि । आ । अ॒क॒रित्य॑कः ॥
स्वर रहित मन्त्र
याद्राध्यं१ वरुणो योनिमप्यमनिशितं निमिषि जर्भुराणः। विश्वो मार्ताण्डो व्रजमा पशुर्गात्स्थशो जन्मानि सविता व्याकः॥
स्वर रहित पद पाठयात्ऽराध्यम्। वरुणः। योनिम्। अप्यम्। अनिऽशितम्। निऽमिषि। जर्भुराणः। विश्वः। मार्ताण्डः। व्रजम्। आ। पशुः। गात्। स्थऽशः। जन्मानि। सविता। वि। आ। अकरित्यकः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 38; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
विषय - उत्तम राजा के कर्तव्य ।
भावार्थ -
जिस प्रकार ( वरुणः ) सब जगत् को अन्धकार से घेर लेने वाला रात्रिकाल का अन्धकार ( निमिषि ) सूर्यास्त हो जाने पर ( अनिशितम् ) तीक्ष्णता या प्रचण्डता से रहित, शीतल ( याद्राध्यं ) जल जन्तुओं से सेवनीय, और गतिमान जंगम प्राणियों से सेवन करने योग्य ( अप्यम् ) जलमय और प्राणों के हितकर ( योनिम् ) समुद्र और स्थल भूभाग को भी ( जर्भुराणः ) घेर लेता है । और ( विश्वः मार्ताण्डः ) समस्त अण्डों से उत्पन्न पक्षि गण तथा ( पशुः ) पशु गण भी ( व्रजम् आगात् ) अपने गन्तव्य गृह या बाड़े में लौट आते हैं तब भी बाद में सविता ( स्थशः ) सब स्थानों और ( जन्मानि ) सब प्राणियों को ( वि आकः ) विशेष रूप से प्रकट कर देता है उसी प्रकार ( वरुणः ) सर्व श्रेष्ठ, सबके वरण करने योग्य, सब दुःखों और अज्ञानों के वारक राजा और आचार्य ( निमिषि ) अज्ञानमय अन्धकार काल में असावधानता के अवसर में या जब लोग आंख मीचकर सो रहे हों ऐसे रात्रिकाल में भी ( जर्भुराणः ) अधीनस्थों को पालन करता हुआ, ( याद्राध्यं ) शरण में आने वाले शिष्यों और प्रजा गणों से आराधना करने योग्य, ( अनिशितम् ) अतीक्ष्ण, सुखदायी ( अप्यम् ) प्राणों के और आप्त जनों के हितकर ( योनिं ) स्थान, गृह और शरण को प्रदान करे । तब ( मार्ताण्डः ) मृत अर्थात् भिन्न अण्डे से उत्पन्न पक्षी के समान या ( पशु: ) पालतू पशु के समान स्वयं ( मार्ताण्डः ) ‘मार्ताण्ड’ अर्थात् सूर्य के आश्रय पर जीने वाले ( विश्वः ) समस्त जन और ( पशुः ) चक्षुओं से देखने वाले विवेकी पुरुष ( व्रजम् ) अपने गन्तव्य शरण को ( आगात् ) प्राप्त होते हैं । और वह ( सविता ) सबका आज्ञापक सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष ( स्पशः ) सब स्थानों और ( जन्मानि ) सब उत्पन्न होने वाले अधीन प्राणियों को ( विः आ अकः ) व्यवस्थित करे । इसी प्रकार परमेश्वर भी प्रलय में सबकी रक्षा करता हुआ सर्गारम्भ में विश्व को प्रकट करता है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः॥ सविता देवता ॥ छन्दः– १, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् ३, ४, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७,८ स्वराट् पङ्क्तिः ९ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एका दशर्चं सूक्तम्॥
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