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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 38/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - सविता छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    या॒द्रा॒ध्यं१॒॑ वरु॑णो॒ योनि॒मप्य॒मनि॑शितं नि॒मिषि॒ जर्भु॑राणः। विश्वो॑ मार्ता॒ण्डो व्र॒जमा प॒शुर्गा॑त्स्थ॒शो जन्मा॑नि सवि॒ता व्याकः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या॒त्ऽरा॒ध्य॑म् । वरु॑णः । योनि॑म् । अप्य॑म् । अनि॑ऽशितम् । नि॒ऽमिषि॑ । जर्भु॑राणः । विश्वः॑ । मा॒र्ता॒ण्डः । व्र॒जम् । आ । प॒शुः । गा॒त् । स्थ॒ऽशः । जन्मा॑नि । स॒वि॒ता । वि । आ । अ॒क॒रित्य॑कः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याद्राध्यं१ वरुणो योनिमप्यमनिशितं निमिषि जर्भुराणः। विश्वो मार्ताण्डो व्रजमा पशुर्गात्स्थशो जन्मानि सविता व्याकः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यात्ऽराध्यम्। वरुणः। योनिम्। अप्यम्। अनिऽशितम्। निऽमिषि। जर्भुराणः। विश्वः। मार्ताण्डः। व्रजम्। आ। पशुः। गात्। स्थऽशः। जन्मानि। सविता। वि। आ। अकरित्यकः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 38; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यो विश्वो मार्त्ताण्डो निमिषि जर्भुराणो वरुणो व्रजं पशुरिव याद्राध्यमप्यमनिशितं योनिमागात् तस्य जीवस्य स्थशो जन्मानि सविता व्याकः ॥८॥

    पदार्थः

    (याद्राध्यम्) ये यान्ति ते यातस्तैराध्यं याद्राध्यं संसाधनीयम् (वरुणः) वरो जीवः (योनिम्) कारणं वह्निम् (अप्यम्) अप्सु भवम् (अनिशितम्) अतीक्ष्णम् (निमिषि) निमिषादि कालव्यवहारे (जर्भुराणः) भृशं धरन् (विश्वः) सर्वः (मार्त्ताण्डः) मार्त्तण्डे सूर्ये भवः। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (व्रजम्) गोष्ठानम् (आ) (पशुः) (गात्) प्राप्नुयात् (स्थशः) तिष्ठन्तीति स्थास्तानि बहूनि इति स्थशः। अत्र बह्वल्पार्थादिति शस्। (जन्मानि) (सविता) परमात्मा (वि) (आ) (अकः) करोति ॥८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यावन्तोऽत्र जगति जीवाः सन्ति ते स्वकीयकर्मजन्यं फलं विद्यमाने शरीरे परस्ताच्च प्राप्नुवन्ति यथा पशुः गोपालेन नियतः सन् प्राप्तव्यं स्थानं प्राप्नोति तथा जगदीश्वरो जीवैरनुष्ठितकर्मानुसारेण सुखदुःखे निकृष्टमध्यमोत्तमानि जन्मानि च ददाति ॥८॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (विश्वः) समस्त (मार्त्ताण्डः) सूर्य्यलोक में उत्पन्न और (निमिषि) निमेषादि काल व्यवहार में (जर्भुराणः) निरन्तर धारण करता हुआ (वरुणः) श्रेष्ठ जीव (व्रजम्) गोण्ड़े को (पशुः) जैसे पशु वैसे (याद्राध्यम्) जानेवालों से अच्छे प्रकार सिद्ध होने योग्य (अप्यम्) जलों में प्रसिद्ध (अनिशितम्) अतीक्ष्ण (योनिम्) कारणरूप अग्नि को (आ,गात्) प्राप्त होवे उस जीव के (स्थशः) बहुत ठहरनेवाले (जन्मानि) जन्मों को (सविता) परमात्मा (व्याकः) विविध प्रकार से करता है ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जितने इस जगत् में जीव हैं, वे अपने कर्मजन्य फल को विद्यमान शरीर में और पीछे भी प्राप्त होते हैं। जैसे पशु गोपाल से नियम में रखा हुआ प्राप्तव्य स्थान को प्राप्त होता है, वैसे जगदीश्वर जीवों से अनुष्ठित कर्मों के अनुसार सुख-दुःख और निकृष्ट-मध्यम तथा उत्तम जन्मों को देता है ॥८॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. या जगात जितके जीव आहेत ते आपले कर्मजन्य फळ विद्यमान शरीरात व नंतरही भोगतात. जसा गोपाल पशूंना निश्चित स्थानी ठेवतो तसा जगदीश्वर जीवांच्या अनुष्ठित कर्मानुसार सुख-दुःख, निकृष्ट, मध्यम व उत्तम जन्म देतो. ॥ ८ ॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Savita, lord creator of the universe, sustaining it in the succession of moments in the time continuum, creates various forms for various births of the souls according to their state of karma, and the same lord as Varuna, lord of love and justice, assigns the form desired and deserved by the soul the moment its eye is closed on death. Thus do all living beings under the sun come back to their ultimate home from where they had gone out on their existential journey.

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