ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 38/ मन्त्र 9
न यस्येन्द्रो॒ वरु॑णो॒ न मि॒त्रो व्र॒तम॑र्य॒मा न मि॒नन्ति॑ रु॒द्रः। नारा॑तय॒स्तमि॒दं स्व॒स्ति हु॒वे दे॒वं स॑वि॒तारं॒ नमो॑भिः॥
स्वर सहित पद पाठन । यस्य॑ । इन्द्रः॑ । वरु॑णः । न । मि॒त्रः । व्र॒तम् । अ॒र्य॒मा । न । मि॒नन्ति॑ । रु॒द्रः । न । अरा॑तयः । तम् । इ॒दम् । स्व॒स्ति । हु॒वे । दे॒वम् । स॒वि॒तार॑म् । नमः॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
न यस्येन्द्रो वरुणो न मित्रो व्रतमर्यमा न मिनन्ति रुद्रः। नारातयस्तमिदं स्वस्ति हुवे देवं सवितारं नमोभिः॥
स्वर रहित पद पाठन। यस्य। इन्द्रः। वरुणः। न। मित्रः। व्रतम्। अर्यमा। न। मिनन्ति। रुद्रः। न। अरातयः। तम्। इदम्। स्वस्ति। हुवे। देवम्। सवितारम्। नमःऽभिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 38; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या यस्य व्रतं नेन्द्रो न वरुणो न मित्रो नार्यमा न रुद्रो नारातयो मिनन्ति तमिदं स्वस्ति सुखरूपं सवितारं देवं नमोभिर्यथाऽहं हुवे तथा यूयमपि प्रशंसेत ॥९॥
पदार्थः
(न) (यस्य) जगदीश्वरस्य (इन्द्रः) सूर्य्यो विद्युद्वा (वरुणः) आपः (न) (मित्रः) वायुः (व्रतम्) नियमम् (अर्य्यमा) नियन्ता धारको वायुः (न) (मिनन्ति) हिंसन्ति (रुद्रः) जीवः (न) (अरातयः) शत्रवः (तम्) (इदम्) (स्वस्ति) (हुवे) स्तौमि (देवम्) दातारम् (सवितारम्) सकलजगदुत्पादकम् (नमोभिः) सत्कर्मभिः ॥९॥
भावार्थः
इह न कश्चित्पदार्थ ईश्वरतुल्योऽस्ति कुतोऽधिको न कोऽप्यस्य नियममुल्लङ्घयितुं शक्नोति तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैस्तस्यैवेश्वरस्य स्तुतिप्रार्थनोपासनाः कार्य्याः ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यस्य) जिस जगदीश्वर के (व्रतम्) नियम को (न) न (इन्द्रः) सूर्य्य और बिजली (न) न (वरुणः) जल (न) न (मित्रः) वायुः (न) न (अर्य्यमा) द्वितीय प्रकार का नियन्ता धारक वायु (न) न (रुद्रः) जीव (न) न (अरातयः) शत्रुजन (मिनन्ति) नष्ट करते हैं (तम्) उस (इदम्) इस (स्वस्ति) सुखरूप (सवितारम्) समस्त जगत् के उत्पन्न करनेवाले (देवम्) दाता परमात्मा को (नमोभिः) सत्कर्मों से जैसे मैं (हुवे) स्तुति करुँ वैसे तुम भी प्रशंसा करो ॥९॥
भावार्थ
इस संसार में कोई पदार्थ ईश्वर के तुल्य नहीं है तो अधिक कैसे हो और कोई भी इसके नियम का उल्लङ्घन नहीं कर सकता है, इस कारण सब मनुष्यों को उसी ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना और उपासना करना चाहिये ॥९॥
विषय
वह महान् सविता
पदार्थ
१. सूर्य भी सविता है, परन्तु सूर्य को भी प्रकाश प्राप्त करानेवाला प्रभु महान् सविता है । वह वह सविता है (यस्य व्रतम्) = जिसके नियम को (इन्द्रः) = इन्द्र व (वरुणः) = वरुण (न) = नहीं (मिनन्ति) = तोड़ते हैं । (मित्रः) = मित्र व (अर्यमा) = अर्यमा भी (न) = नहीं तोड़ते और (रुद्रः न) = रुद्र भी उस सविता के व्रत को तोड़ता नहीं। २. जैसे सूर्यादि देव उस प्रभु के व्रत को तोड़ नहीं सकते, उसी प्रकार (अरातयः) = अदानशील पुरुष भी यज्ञादि उत्तम कर्मों को न करनेवाले पुरुष भी (न) = उस प्रभु के व्रत को तोड़ नहीं सकते। इन्हें भी उस प्रभु की व्यवस्था में मर्यादाओं के उल्लङ्घन का दण्ड भोगना ही पड़ता है। (तम् सवितारम्) = उस प्रेरक प्रभु को (इदम्) = [इदानीम्] अब (स्वस्ति) = कल्याण के लिए (नमोभिः) = नमन द्वारा (हुवे) = पुकारता हूँ। प्रभुस्मरण से मैं मर्यादोल्लङ्घन से बचता हूँ और इस प्रकार कल्याण को प्राप्त करता हूँ ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु के व्रत को जड़-चेतन कोई भी तोड़ नहीं सकते।
विषय
परमेश्वर की उपासना का उपदेश ।
भावार्थ
( यस्य ) जिसके ( व्रतम् ) नियम-व्यवस्था और कर्म को ( न इन्द्रः ) न विद्युत्, ( वरुणः ) और जल, मेघ, समुद्र, ( न मित्रः ) और न वायु, प्राणगण, और ( अर्यमा ) सबकी नियामक शक्ति सूर्य या धारक वायु और ( न रुद्रः ) न जीवगण और ( न अरातयः ) न शत्रुगण, परस्पर विरोधी शक्ति ही ( मिनन्ति ) तोड़ सकते हैं ( तम् ) उस ( इदं ) इस साक्षात् ( सवितारं ) सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक ( देवं ) सर्वप्रकाशक परमेश्वर वा राजा को हम ( नमोभिः ) नमस्कारों से ( स्वस्ति ) अपने कल्याण के लिये ( हुवे ) प्रार्थना करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः॥ सविता देवता ॥ छन्दः– १, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् ३, ४, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७,८ स्वराट् पङ्क्तिः ९ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एका दशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या जगात कोणताही पदार्थ ईश्वराएवढा नाही तर जास्त कसा असेल? कोणीही त्याच्या नियमाचे उल्लंघन करू शकत नाही. त्यासाठी सर्व माणसांनी त्याच ईश्वराची स्तुती, प्रार्थना व उपासना केली पाहिजे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
None can violate, nor circumvent the law and justice of Savita, Supreme Lord Creator: Neither Indra, the sun and cosmic electric force, nor Varuna, the waters, nor Mitra, the winds, nor Aryama, life breath of air, nor even Rudra, the soul by itself or in alliance with any power of nature, no enemies, that is, any imaginable counter forces can violate the divine law. This Lord Savita, for well-being and salvation, do I invoke with homage and salutations. Self-refulgent is He, generous and gracious.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More Glories to the Lord.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I glorify that resplendent SAVITA – creator of the world with reverential salutations and good actions. His eternal laws can never be transgressed or impeded by the sun or electricity, waters, PRĀNA and air ( gross and subtle which control or uphold all). No souls or adversaries can overlap Him. I invoke That Creator of the world Who is the Giver of Peace and Happiness and Himself is embodiment of the Bliss.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
In this world there is none equal to God, what to say any body of Being Superior to Him, none can transgress His eternal laws and commandments. Therefore, it is the duty of all persons to glorify, pray to and have communion with that Supreme Being.
Foot Notes
(इन्द्र:) सूर्य्यो विद्युद्वा | अथ यः स इन्द्रो ऽसौ आदित्यः । ( Stph. 8, 5, 3, 2) = The sun or electricity. (मित्रः) वायुः । प्राणी वै मित्रः । ( Stph. 6, 5, 1, 5, 8, 4, 2, 6) = The air. (अय्यर्मा ) नियन्ताधारक वायु:।= The subtle air that controls body. (रुद्रः) जीव: । रोदयन्ति तस्माद् इति । ( Stph. 11, 6, 3, 7 ) = Souls.
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