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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 38/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - सविता छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पुनः॒ सम॑व्य॒द्वित॑तं॒ वय॑न्ती म॒ध्या कर्तो॒र्न्य॑धा॒च्छक्म॒ धीरः॑। उत्सं॒हाया॑स्था॒द्व्यृ१॒॑तूँर॑दर्धर॒रम॑तिः सवि॒ता दे॒व आगा॑त्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुन॒रिति॑ । सम् । अ॒व्य॒त् । विऽत॑तम् । वय॑न्ती । म॒ध्या । कर्तोः॑ । नि । अ॒धा॒त् । शक्म॑ । धीरः॑ । उत् । स॒म्ऽहाय॑ । अ॒स्था॒त् । वि । ऋ॒तून् । अ॒द॒र्धः॒ । अ॒रम॑तिः । स॒वि॒ता । दे॒वः । आ । अ॒गा॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनः समव्यद्विततं वयन्ती मध्या कर्तोर्न्यधाच्छक्म धीरः। उत्संहायास्थाद्व्यृ१तूँरदर्धररमतिः सविता देव आगात्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुनरिति। सम्। अव्यत्। विऽततम्। वयन्ती। मध्या। कर्तोः। नि। अधात्। शक्म। धीरः। उत्। सम्ऽहाय। अस्थात्। वि। ऋतून्। अदर्धः। अरमतिः। सविता। देवः। आ। अगात्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 38; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सूर्यलोकविषयमाह।

    अन्वयः

    यो धीरो विद्वान् या मध्या वयन्ती पृथिवी विततं समव्यत्कर्त्तोः शक्म न्यधात् पूर्वं देशं संहायोत्तरं प्राप्नुवत्युदस्थात् तां जानाति योऽरमतिः सविता देव तून् व्यदर्धः सन्निहितान् पदार्थानागात्तां जानाति स भूगोलखगोलविद्भवति ॥४॥

    पदार्थः

    (पुनः) (सम्) (अव्यत्) व्याप्नोति। अत्र बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (विततम्) व्याप्तम् (वयन्ती) गच्छन्ती (मध्या) आकाशस्य मध्ये भवा (कर्त्तोः) कर्त्तव्यं गमनाद्यगन्तव्यं कर्म (नि) (अधात्) दधाति (शक्म) शक्यं कर्म (धीरः) धीमान् (उत्) (संहाय) सम्यक् त्यक्त्वा (अस्थात्) तिष्ठति (वि) (तून्) वसन्तादीन् (अदर्धः) भृशं विदारयति। अत्र वर्णव्यत्ययेन दस्य स्थाने धः (अरमतिः) न रमती रमणं विद्यते यस्य सः (सविता) सूर्यलोकः (देवः) प्रकाशमानः (आ) (अगात्) आगच्छति ॥४॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या इमे सर्वे लोका अन्तरिक्षस्था भ्रमणशीला ईश्वरेण नियमं प्रापिताः सन्ति तेषु सूर्यसन्निध्या भ्रमणेन च षडृतवो जायन्त इति वेद्यम् ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सूर्यलोक विषय को अगल मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (धीरः) धीर बुद्धिमान् (मध्या) आकाश के बीच (वयन्ती) चलती हुई पृथिवी (विततम्) जो पदार्थ अपने में व्याप्त उसको (सम्,अव्यत्) सम्यक् व्याप्त होती (कर्त्तोः) और करने योग्य जाने-आने के काम को तथा (शक्म) शक्ति के अनुकूल जो कर्म है उसको (नि,अधात्) निरन्तर धारण करती है (पुनः) फिर पूर्व देश को (संहाय) अच्छे प्रकार छोड़ उत्तर अर्थात् दूसरे देश को प्राप्त होती हुई (उत्,अस्थात्) स्थित होती उसको जानता है, जो (अरमतिः) बिना रमण विद्यमान है वह (सविता) सूर्य्यलोक (देवः) प्रकाशमान होता हुआ (तून्) तुओं को (व्यदर्धः) निरन्तर अलग करता तथा निकट के पदार्थों को (आ,अगात्) प्राप्त होता उसको जो जानता है, वह भूगोल और खगोल विद्या का जाननेवाला होता है ॥४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! ये सब लोक अन्तरिक्ष में ठहरे हुए भ्रमणशील ईश्वर ने नियम को पहुँचाये हुए हैं, उनमें सूर्य के सन्निकट और भ्रमण से छः तु होते हैं, यह जानना चाहिये ॥४॥

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    विषय

    श्रम व ऋतुओं की समृद्धि

    पदार्थ

    १. (वयन्ती) = वस्त्र को बुनती हुई नारी के समान रात्रि विततम् फैले हुए प्रकाश को (पुनः) = पहले की भाँति (समव्यत्) = संवेष्टित कर लेती है। पहले भी रात्रि फैले हुए सूर्यप्रकाश को संवेष्टित करती रही है, आज पहले की भाँति फिर उसे संवेष्टित करती है। इस रात्रि के आने पर (धीरः) = प्राज्ञ-पुरुष–बुद्धिमान् पुरुष (कर्तो:) = क्रियमाण कर्म को शक्म चाहे वह अग्नि, बिजली आदि के प्रकाश में किया भी जा सकता है तो भी मध्या-बीच में ही (न्यधात्) = रख देता है । स्वाभाविक जीवन यही है कि सूर्योदय के साथ कर्म प्रारम्भ किया जाए और सूर्यास्त के साथ उसे रोक कर विश्राम के लिए तैयारी की जाए। यही स्वस्थ रहने का मार्ग है। २. रात्रि की समाप्ति पर यह धीर पुरुष (संहाय) = शय्या को छोड़कर (उद् अस्थात्) = उठ खड़ा होता है । (अरमतिः) = विराम न लेनेवाला [अनुपरतिः] सविता देव:प्रेरक प्रकाशमय सूर्य भी तो (आगात्) = आ गया है-फिर से उदित हो गया है । (ऋतून्) = ऋतुओं कोकालविशेषों को (वि अदर्ध:) = विशेषरूप [cause to succeed] से एक दूसरे के पीछे लाने का कारण बनता है– भिन्न-भिन्न ऋतुओं को यह सूर्य ही उपस्थित करता है, उन्हें समृद्ध बनाता है। ।

    भावार्थ

    भावार्थ - रात्रि आती है और एक समझदार पुरुष कर्म को समाप्त करके विश्राम की तैयारी करता है रात्रि की समाप्ति पर यह शय्या को छोड़ता है। सूर्योदय के साथ कर्म में पुन: प्रवृत्त होता है। सूर्य ही सब ऋतुओं को समृद्ध करता है।

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    विषय

    सविता नाम तेजस्वी राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( विततं ) विस्तृत अन्धकार को ( वयन्ती ) पट के समान बिनती हुई कोरिन के समान ( मध्या ) दो दिनों के बीच में विद्यमान रहकर ( पुनः सम् अव्यत् ) वार २ व्याप लेती है । और ( धीरः ) धीर या बुद्धिमान् पुरुष जिस प्रकार ( मध्या ) बीच ही में ( शक्म कर्त्तोः ) शक्ति से करने योग्य कर्म को ( वि अधात् ) वैसे ही विना किये रख छोड़ता है। और ( संहाय ) प्रातः उठकर ( पुनः उत् अस्थात् ) फिर उठता है । ( ऋतून् वि अदधः ) काल के अवयवों को विविध रूप से बांटता है उसी प्रकार ( अरमतिः ) कभी विराम न लेने वाला ( देवः ) प्रकाशक ( सविता ) सूर्य ( संहाय उत् अस्थात् ) उठ कर पुनः उदय होता है ( अरमतिः ) विराम रहित होकर ( सविता ) सूर्य पुनः ( आगात् ) आ जाता है । ठीक इसी प्रकार ( विततं ) विस्तृत जगत् को ( वयन्ती ) व्यापने वाली ब्रह्म शक्ति या प्रकृति ( पुनः ) वार २ इस विस्तृत जगत् को ( सम् अव्यत् ) अच्छी प्रकार व्यापती है और जगत् को सृजती और संहारती है और ( मध्या ) उस जगत् के बीच, ( धीरः ) धारण करने में समर्थ परमेश्वर ( शक्म ) शक्ति से करने योग्य ( कर्त्तोः ) कर्म बल को ( नि अधात् ) सब प्रकार से धारण किये रहता है । वह (संहाय) पुनः प्रलय के बाद प्रलयान्धकार को सूर्य के समान पूर्व सन्ध्या के समय दूर करके ( उत् अस्थात् ) समस्त प्रकृति जन्य संसार के ऊपर शासक रूप से स्थित रहता है। वही ( ऋतून् ) गतिमान् काल के अंशों और प्राणों को भी ( वि अदर्धः ) विविध विभागों में बांटता और धारण करता है । वही ( देवः ) सबका प्रकाशक ( सविता ) सर्वोत्पादक ( अरमतिः ) अति अधिक ज्ञानवान् होकर ( आअगात् ) सर्वत्र व्यापक होकर रहता है ।

    टिप्पणी

    रदर्दरिति सायणाभिमतः पाठः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ सविता देवता ॥ छन्दः– १, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् ३, ४, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७,८ स्वराट् पङ्क्तिः ९ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एका दशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! हे सर्व गोल अंतरिक्षात भ्रमण करतात ते ईश्वराने नियमपूर्वक बनवलेले असतात. पृथ्वीचे सूर्याभोवती परिभ्रमण होत असल्यामुळे सहा ऋतू होतात हे जाणावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The earth, traversing the wide wide space, revolves again and again in orbit in the solar region wielding her force and power to do the rounds assigned to her, and, leaving one place, moving on, comes back to the same and remains stable in the orbit. The constant and sleepless lord Savita, the Sun, self-refulgent and divine, creates the seasons of the year in the distinct order.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The functions of the sun are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    An intelligent person knows that this earth. revolves around the sun and pervades the various objects. It moves according to the laws ordained by God. This earth leaving the previous place goes to the next point in its rotation. He, also knows that the sun is never resplendent, un-wearisome, and takes no rest. It divides the seasons and reaches the objects (thought its rays) that are in its proximity. A scholar of the Sciences of Geography and Astronomy, knows it well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should know that all these rotating worlds that are in the firmament are controlled and put in order by God. It is by the proximities of the sun, that six seasons come into being.

    Foot Notes

    (अदर्ध:) भृशं विदारयति । अत्न वर्णव्यत्ययेन दस्य स्थाने धः = = Divides. (सविता ) सूर्यलोकः। = Sun world.

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