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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 38/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - सविता छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    भगं॒ धियं॑ वा॒जय॑न्तः॒ पुर॑न्धिं॒ नरा॒शंसो॒ ग्नास्पति॑र्नो अव्याः। आ॒ये वा॒मस्य॑ संग॒थे र॑यी॒णां प्रि॒या दे॒वस्य॑ सवि॒तुः स्या॑म॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भग॑म् । धिय॑म् । वा॒जय॑न्तः । पुर॑म्ऽधिम् । नरा॒शंसः॑ । ग्नाःपतिः॑ । नः॒ । अ॒व्याः॒ । आ॒ऽअ॒ये । वा॒मस्य॑ । स॒म्ऽग॒थे । र॒यी॒णाम् । प्रि॒याः । दे॒वस्य॑ । स॒वि॒तुः । स्या॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भगं धियं वाजयन्तः पुरन्धिं नराशंसो ग्नास्पतिर्नो अव्याः। आये वामस्य संगथे रयीणां प्रिया देवस्य सवितुः स्याम॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भगम्। धियम्। वाजयन्तः। पुरम्ऽधिम्। नराशंसः। ग्नाःपतिः। नः। अव्याः। आऽअये। वामस्य। सम्ऽगथे। रयीणाम्। प्रियाः। देवस्य। सवितुः। स्याम॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 38; मन्त्र » 10
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यो नराशंसः पतिरीश्वरो नो ग्नाश्चाव्यास्तं भगं धियं पुरन्धिं वाजयन्तो वयं रयीणामाये सङ्गथे वामस्य सवितुर्देवस्य परमात्मनः प्रियाः सततं स्याम ॥१०॥

    पदार्थः

    (भगम्) सकलैश्वर्य्यम् (धियम्) चिन्तनीयम् (वाजयन्तः) जानन्तो ज्ञापयन्तः (पुरन्धिम्) सर्वस्य जगतो धर्त्तारम् (नराशंसः) नरैः प्रशंसितः (ग्नाः) वाचः (पतिः) पालकः (नः) अस्मान् (अव्याः) रक्षेत् (आये) यत्समन्तादय्यते तस्मिन् (वामस्य) प्रशस्यस्य (सङ्गथे) सङ्ग्रामे (रयीणाम्) धनानाम् (प्रियाः) प्रीतिविषयाः (देवस्य) भगवतः परमात्मनः (सवितुः) सर्वस्य जगतो निर्मातुः (स्याम) भवेम ॥१०॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः सर्वस्य रक्षकं धर्त्तारं प्रशंसितं सर्वस्य स्वामिनं परमेश्वरमुपास्य तदाज्ञाचरणेन तत्प्रिया यूयं भवत ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (नराशंसः) मनुष्यों ने प्रशंसित किया हुआ (पतिः) पालना करनेवाला ईश्वर (नः) हम लोगों (ग्नाः) और वाणियों की (अव्याः) रक्षा करे और उस (भगम्) समस्त ऐश्वर्य की (धियम्) जो चिन्तन करने योग्य है वा (पुरन्धिम्) समस्त जगत् के धारण करनेवाले को (वाजयन्तः) जानते वा उसका विज्ञान कराते हुए हम लोग (रयीणाम्) धनों के (आये) इस व्यवहार में जो सब ओर से प्राप्त होता और (सङ्गथे) संग्राम में (वामस्य) प्रशंसनीय (सवितुः) सकल जगत् के बनानेवाले (देवस्य) भगवान् परमात्मा के (प्रियाः) प्रीति विषय निरन्तर (स्याम) हों ॥१०॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! सबकी रक्षा और धारण करनेवाले प्रशंसित सबके स्वामी परमेश्वर की उपासना कर उसकी आज्ञा के आचरण से उसके प्यारे तुम होओ ॥१०॥

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    विषय

    प्रभु के प्रिय

    पदार्थ

    १. (भगम्) = सेवनीय ऐश्वर्य को (धियम्) = बुद्धि को (पुरन्धिम्) = पालक व पूरक अथवा बहुत शुभगुणों की धारक बुद्धि को (वाजयन्तः) = [वाजयन्=प्राप्तुमिच्छन् द०] प्राप्त करने के लिए चाहते हुए हम (सवितुः देवस्य) = उस प्रेरक प्रकाशमय प्रभु के (प्रियाः स्याम) प्रिय बनें । २. (वामस्य) आये सुन्दर दिव्यगुणों को हमारे जीवनों में आने के विषय में (रयीणां संगथे) = धनों की प्राप्ति के निमित्त (नराशंसः) = सब मनुष्यों से स्तुति करने योग्य (ग्नास्पतिः) = छन्दों व वेदवाणियों का पति वह प्रभु (नः) = हमें (अव्याः) = रक्षित करे। उस प्रभु से रक्षित होकर के ही हम सुन्दर दिव्य गुणों को धारण कर सकेंगे और उसी की रक्षा में सब ऐश्वर्यों का अर्जन कर पाएँगे।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम उत्तम ऐश्वर्य, बुद्धि व पुरन्धि को प्राप्त करने की कामनावाले होकर प्रभु के प्रिय बनें । प्रभु से रक्षित होकर दिव्यगुणों व धनों का अर्जन करें।

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    विषय

    परमेश्वर की उपासना का उपदेश ।

    भावार्थ

    हम ( भगं ) ऐश्वर्यमय, सुख कल्याण के दाता ( धियं ) ध्यान करने योग्य, ( पुरन्धिं ) समस्त जगत् को धारण करने वाले परमेश्वर को ( वाजयन्तः ) स्वयं ज्ञान करने और अन्यों के ज्ञान देने वाले हों । वह ( नराशंसः ) सब मनुष्यों से स्तुति किया जाने योग्य ( पतिः ) पालक प्रभु ( नः ) हम जीवों और ( ग्नाः ) वाणियों को ( अव्याः ) जानता और पालता है । अथवा—( ग्नाः पतिः ) समस्त वेद वाणियों का पालक, वह हमें रक्षा करें । और ( वामस्य ) उत्तम ऐश्वर्य के ( आअये ) प्राप्त होने और ( रयीणां ) समस्त पशु आदि सम्पदाओं के ( संगथे ) प्राप्त होने पर भी हम ( सवितुः ) सर्वोत्पादक ( देवस्य ) सर्वप्रकाशक, सर्वप्रद, प्रभु परमेश्वर के ( प्रियाः ) प्रिय होकर ( स्याम ) रहें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ सविता देवता ॥ छन्दः– १, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् ३, ४, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७,८ स्वराट् पङ्क्तिः ९ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एका दशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! सर्वांचे रक्षण व धारण करणारा, प्रशंसित, सर्वांचा स्वामी असलेल्या परमेश्वराची उपासना करून त्याच्या आज्ञेप्रमाणे आचरण करून तुम्ही त्याचे प्रिय बना. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Glorious is Savita, worthy of thought and meditation, sustainer of the universe, celebrated by humanity, lord protector of all. We know the lord and do homage to Him with prayer, submission and yajna, and we earnestly wish that in our battles of life and in our success in the achievement of the wealth of life we may ever be blest with His love and grace.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Glory to the Greatness of God.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May we be the beloved of that Creator and Illuminator of the world who is adored by all persons. May He preserve our noble speech. May we know and teach about that Lord who is the object of meditation and who is the upholder of the whole world. May we be dear to that most admirable Lord on the occasion of the acquisition of wealth and at the battlefield of life.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! be beloved to God who is the Protector Upholder and Admirable Lord of the whole universe by having communion with Him and by obeying to His commandments.

    Foot Notes

    (वाजयन्तः) जानन्तो ज्ञापयन्तः । = Knowing and teaching (about God). (सङगमे ) सङ्ग्रामे | = At the battle-field. (पुरन्धिम् ) सर्वस्य जगतो धर्तारम् । = The upholder of the whole world.

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