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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 14
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    प्र स॒प्तहो॑ता सन॒काद॑रोचत मा॒तुरु॒पस्थे॒ यदशो॑च॒दूध॑नि। न नि मि॑षति सु॒रणो॑ दि॒वेदि॑वे॒ यदसु॑रस्य ज॒ठरा॒दजा॑यत॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । स॒प्तऽहो॑ता । स॒न॒कात् । अ॒रो॒च॒त॒ । मा॒तुः । उ॒पऽस्थे॑ । यत् । अशो॑चत् । ऊध॑नि । न । नि । मि॒ष॒ति॒ । सु॒ऽरणः॑ । दि॒वेऽदि॑वे । यत् । असु॑रस्य । ज॒ठरा॑त् । अजा॑यत ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र सप्तहोता सनकादरोचत मातुरुपस्थे यदशोचदूधनि। न नि मिषति सुरणो दिवेदिवे यदसुरस्य जठरादजायत॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। सप्तऽहोता। सनकात्। अरोचत। मातुः। उपऽस्थे। यत्। अशोचत्। ऊधनि। न। नि। मिषति। सुऽरणः। दिवेऽदिवे। यत्। असुरस्य। जठरात्। अजायत॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 14
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (यत्) जिस प्रकार अग्नि (सप्तहोता) सातों प्राणों से सात ऋत्विजों के समान ग्रहण करने योग्य (सनकात्) अपने सनातन मूलकारण से उत्पन्न होकर (अरोचत) प्रकाशित होता है और जो (मातुः उपस्थे) अपने उत्पादक निमित्त भूत वायु के समीप और (ऊधनि) रात्रिकाल वा अन्तरिक्ष में (अशोचत्) चमकता है अथवा जो सूर्य रूप में सात रश्मियों द्वारा जल ग्रहण करने हारा, सनातन चिरकाल से चमक रहा है और जो (मातुः) आकाश के बीच (ऊधनि) मेघ में विद्युत् रूप से चमकता है (यत्) जो अग्नि (दिवे दिवे) प्रतिदिन (सुरणः) उत्तम ध्वनि करता हुआ (न निमिषति) कभी नाश को प्राप्त नहीं होता और जो (असुरस्य) बलवान् प्रभञ्जन वायु के (जठरात्) मध्य से (अजायत) प्रकट होता है। अथवा—(सुरणः) सुख से या उत्तम रूप से गमन करने वाला सूर्य (दिवे दिवे) प्रतिदिन (न निमिषति) कभी अस्त नहीं होता (यत्) जो विद्युत् रूप से (असुरस्य) मेघ के (जठरात्) मध्य भाग से उत्पन्न होता है। उसी प्रकार (मातुः उपस्थे ऊधनि) माता का गोद स्तनों पर पलते बालकवत् मातृ-पृथिवी के ऊपर उत्तम ऐश्वर्य पद पर (अशोचत्) विशेष कान्ति से चमकता है और सातों प्राणोंवत् सात प्रकृतियों का वशकर्त्ता सर्वप्रिय होता है वह उत्तम रमणशाली होकर कभी (न निमिषति) अस्त सूर्यवत् नहीं होता।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ १–४, ६–१६ अग्नि। ५ ऋत्विजोग्निर्वा देवता॥ छन्दः—१ निचृदनुष्टुप्। ४ विराडनुष्टुप्। १०, १२ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः। ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। ७, ९, १६ निचृत् त्रिष्टुप्। ११, १४, १५ जगती ॥ षडदशर्चं सूक्तम्॥

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