ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 14
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
प्र स॒प्तहो॑ता सन॒काद॑रोचत मा॒तुरु॒पस्थे॒ यदशो॑च॒दूध॑नि। न नि मि॑षति सु॒रणो॑ दि॒वेदि॑वे॒ यदसु॑रस्य ज॒ठरा॒दजा॑यत॥
स्वर सहित पद पाठप्र । स॒प्तऽहो॑ता । स॒न॒कात् । अ॒रो॒च॒त॒ । मा॒तुः । उ॒पऽस्थे॑ । यत् । अशो॑चत् । ऊध॑नि । न । नि । मि॒ष॒ति॒ । सु॒ऽरणः॑ । दि॒वेऽदि॑वे । यत् । असु॑रस्य । ज॒ठरा॑त् । अजा॑यत ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सप्तहोता सनकादरोचत मातुरुपस्थे यदशोचदूधनि। न नि मिषति सुरणो दिवेदिवे यदसुरस्य जठरादजायत॥
स्वर रहित पद पाठप्र। सप्तऽहोता। सनकात्। अरोचत। मातुः। उपऽस्थे। यत्। अशोचत्। ऊधनि। न। नि। मिषति। सुऽरणः। दिवेऽदिवे। यत्। असुरस्य। जठरात्। अजायत॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 14
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या यः सप्तहोताग्निः सनकाज्जातो मातुरुपस्थे प्रारोचत यद्य ऊधन्यशोचद्यः सुरणो दिवेदिवे न निमिषति यद्योऽसुरस्य जठरादजायत तं यथावद्विजानीत ॥१४॥
पदार्थः
(प्र) (सप्तहोता) सप्त प्राणा होतार आदातारो यस्य (सनकात्) सनातनात्कारणात् (अरोचत) प्रकाशते (मातुः) वायोः (उपस्थे) समीपे (यत्) यः (अशोचत्) दीप्यते (ऊधनि) रात्रौ। अत्र वर्णव्यत्ययेन सस्य नः। ऊध इति रात्रिना०। निघं० १। ७। (न) (नि) नितराम् (मिषति) सिञ्चति (सुरणः) शोभनो रणः सङ्ग्रामो यस्मात्सः (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (यत्) यस्मात् (असुरस्य) रूपरहितस्य वायोः (जठरात्) मध्यात् (अजायत) जायते ॥१४॥
भावार्थः
योऽग्निः शोषको वायुनिमित्तः प्रकृत्याख्यात्कारणाज्जातोऽस्ति तं विज्ञाय बहून् व्यवहारान्सर्वे प्रकाशयन्तु ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (सप्तहोता) सात प्राणों से ग्रहण करने योग्य अग्नि (सनकात्) अनादि परम्परा से सिद्ध कारण से उत्पन्न हुआ (मातुः) वायु के (उपस्थे) समीप में (प्रारोचत) प्रकाशित होता है (यत्) जो (ऊधनि) रात्रि में (अशोचत्) प्रकाशित होता है और जो (सुरणः) श्रेष्ठ युद्ध का साधन (दिवेदिवे) प्रतिदिन (न) (नि) अत्यन्त (मिषति) नहीं सींचता है (यत्) जो (असुरस्य) रूप से रहित वायु के (जठरात्) मध्य से (अजायत) उत्पन्न होता है, उसको अच्छे प्रकार जानो ॥१४॥
भावार्थ
जो अग्नि अन्न आदि को शुष्क करनेवाला वायु रूप कारण से प्रसिद्ध प्रकृति नामक कारण से उत्पन्न हुआ है, उसको जानकर बहुत से व्यवहारों को सकल जन प्रसिद्ध करें ॥१४॥
विषय
प्रतिदिन असुर के जठर से प्रादुर्भाव
पदार्थ
[१] (सप्त होता) = 'कर्णाविमौ नासिके चक्षुणी मुखम्' दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो आँखें व मुख इन सातों को होता का रूप देनेवाला व्यक्ति इनसे जीवन यज्ञ को उत्तमता से पूर्ण करनेवाला व्यक्ति, (सनकात्) = उस सनातन पुरुष से (प्र अरोचत) = अत्यन्त ही चमक उठता है। जीवन को यज्ञ का रूप देनेवाले पुरुष के हृदय में प्रभु का प्रकाश दीप्त होता है। इस प्रकाश से इस व्यक्ति का जीवन दीप्त हो जाता है। यह होता तभी है (यत्) = जब कि यह (मातुः उपस्थे) = वेदमाता की गोद में [स्तुता मया वरदा वेदमाता०] (ऊधनि) = उसके ज्ञानदुग्ध के आधार में (अशोचत्) = दीप्त होता है, अर्थात् जब एक व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करने का पूर्ण प्रयत्न करता हुआ जीवन को यज्ञमय बनाता है, तो उसका हृदय प्रभु की दीप्ति से दीप्त हो उठता है। [२] यह (सुरण:) = उत्तमता से प्रभु के नामों का जप करनेवाला (न निमिषति) = कभी प्रमाद नहीं करता, आलस्यवाला नहीं होता। (यत्) = चूँकि यह (दिवे दिवे) = प्रतिदिन (असुरस्य) = [असून् राति] प्राणशक्ति का संचार करनेवाले प्रभु के (जठराद्) = जठर से (अजायत) = प्रादुर्भूत होता है। यह सोने लगता है, तो प्रभु का स्मरण करता हुआ प्रभु में ही लीन हो जाता है। प्रतिदिन प्रातः जागता है, तो उस प्रभु के उदर से ही मानो बाहर आता है। सदा प्रातः सायं प्रभु में लीन होना ही प्रभु के जठर में स्थित होना है। ध्यान से उठकर कार्यों में लगना ही उस जठर से बाहर आना है। यह व्यक्ति अप्रमत्तरूप से अपने कर्त्तव्यों का पालन करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ - जीवन को हम यज्ञमय बनाएँ। वेदमाता की गोद में आनन्द का अनुभव करें। प्रतिदिन प्रभुस्मरण करते हुए अप्रमत्त रूप से कर्त्तव्य का पालन करें।
विषय
विद्युत् जीव।
भावार्थ
(यत्) जिस प्रकार अग्नि (सप्तहोता) सातों प्राणों से सात ऋत्विजों के समान ग्रहण करने योग्य (सनकात्) अपने सनातन मूलकारण से उत्पन्न होकर (अरोचत) प्रकाशित होता है और जो (मातुः उपस्थे) अपने उत्पादक निमित्त भूत वायु के समीप और (ऊधनि) रात्रिकाल वा अन्तरिक्ष में (अशोचत्) चमकता है अथवा जो सूर्य रूप में सात रश्मियों द्वारा जल ग्रहण करने हारा, सनातन चिरकाल से चमक रहा है और जो (मातुः) आकाश के बीच (ऊधनि) मेघ में विद्युत् रूप से चमकता है (यत्) जो अग्नि (दिवे दिवे) प्रतिदिन (सुरणः) उत्तम ध्वनि करता हुआ (न निमिषति) कभी नाश को प्राप्त नहीं होता और जो (असुरस्य) बलवान् प्रभञ्जन वायु के (जठरात्) मध्य से (अजायत) प्रकट होता है। अथवा—(सुरणः) सुख से या उत्तम रूप से गमन करने वाला सूर्य (दिवे दिवे) प्रतिदिन (न निमिषति) कभी अस्त नहीं होता (यत्) जो विद्युत् रूप से (असुरस्य) मेघ के (जठरात्) मध्य भाग से उत्पन्न होता है। उसी प्रकार (मातुः उपस्थे ऊधनि) माता का गोद स्तनों पर पलते बालकवत् मातृ-पृथिवी के ऊपर उत्तम ऐश्वर्य पद पर (अशोचत्) विशेष कान्ति से चमकता है और सातों प्राणोंवत् सात प्रकृतियों का वशकर्त्ता सर्वप्रिय होता है वह उत्तम रमणशाली होकर कभी (न निमिषति) अस्त सूर्यवत् नहीं होता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ १–४, ६–१६ अग्नि। ५ ऋत्विजोग्निर्वा देवता॥ छन्दः—१ निचृदनुष्टुप्। ४ विराडनुष्टुप्। १०, १२ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः। ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। ७, ९, १६ निचृत् त्रिष्टुप्। ११, १४, १५ जगती ॥ षडदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो अग्नी शुष्क करणारा, वायूरूप कारणाने प्रसिद्ध, प्रकृती कारणापासून उत्पन्न झालेला आहे, त्याला जाणून बऱ्याच व्यवहारांना सर्व लोकांनी प्रकट करावे. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Served by seven priests and seven pranic energies, Agni arises from its eternal cause and shines bright and beautiful in the lap of its mother source, earth, wind and sky, and the solar region, illuminant in the dark night as well, proclaiming itself as the victor of battles day by day, day and night, without a wink of let up, since it is born of a powerful mother source, Vayu, eternal energy of existence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of fire is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should exactly know the nature of that fire which is grasped by seven Pranas or senses, which are born out of the eternal cause ( matter ). It shines well with its mother (air) at the night, which is the cause of victory in the battle (when it is used in the form of AGNEYÄSTRA or fire weapon etc.). When it does not sprinkle i.e. is dry, it is born from the inner layer of the formless air.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should manifest many kinds of dealings (works) by knowing well the nature and properties of the fire. It makes articles dry and is born from the eternal cause i.e. the matter.
Translator's Notes
The Air is called the mother of the fire. In the Taittareya Upanishad the some thing is expressed by saying वायोरग्निः अग्नेराप:। The strong wind blazes the fire. By seven senses, it may be taken 2 eyes, 2 ears, 1 nose and two hands. It may also mean in Yajna seven priests who jointly conduct the magnificent Yajnas.
Foot Notes
(सप्तहोता ) सप्त प्राणा होतार आदातारो यस्य। = Which has seven Pranas or senses as its takers or graspers. (मातुः) वायोः। = From the air which is like its mother. (असुरस्य) रूपरहितस्थ वायोः । असुरस्य प्राणशक्तिप्रदस्य बलवतः वायोः। = Of the formless air. (मिषति) सिन्चति । (मिषति) मिषु-सेचने (भ्वा ) = Sprinkles of the mighty wind. (ऊधनि) रात्रौ । अत्र वर्णव्यत्ययेन सस्य नः । ऊध इति रात्रि नाम (N. G. 1, 7) = The night.
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