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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यदी॒ मन्थ॑न्ति बा॒हुभि॒र्वि रो॑च॒तेऽश्वो॒ न वा॒ज्य॑रु॒षो वने॒ष्वा। चि॒त्रो न याम॑न्न॒श्विनो॒रनि॑वृतः॒ परि॑ वृण॒क्त्यश्म॑न॒स्तृणा॒ दह॑न्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑ । मन्थ॑न्ति । बा॒हुऽभिः॑ । वि । रो॒च॒ते॒ । अश्वः॑ । न । वा॒जी । अ॒रु॒षः । वने॑षु । आ । चि॒त्रः । न । याम॑न् । अ॒श्विनोः॑ । अनि॑ऽवृतः । परि॑ । वृ॒ण॒क्ति॒ । अश्म॑नः । तृणा॑ । दह॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदी मन्थन्ति बाहुभिर्वि रोचतेऽश्वो न वाज्यरुषो वनेष्वा। चित्रो न यामन्नश्विनोरनिवृतः परि वृणक्त्यश्मनस्तृणा दहन्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि। मन्थन्ति। बाहुऽभिः। वि। रोचते। अश्वः। न। वाजी। अरुषः। वनेषु। आ। चित्रः। न। यामन्। अश्विनोः। अनिऽवृतः। परि। वृणक्ति। अश्मनः। तृणा। दहन्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    ये मनुष्या बहुभिर्यद्यग्निं मन्थन्ति तर्हि स वनेष्वरुषो वाज्यश्वो न व्यारोचतेऽश्विनोरवृतस्सन् यामँश्चित्रो न तृणा दहन्नश्मनः परि वृणक्ति तमित्थं सर्व उद्घाटयन्तु ॥६॥

    पदार्थः

    (यदि) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (मन्थन्ति) विलोडयन्ति (बाहुभिः) (वि) (रोचते) विशेषेण प्रकाशते (अश्वः) उत्तमस्तुरङ्गः (न) इव (वाजी) वेगवान् (अरुषः) मर्मसु स्थितः (वनेषु) किरणेषु (आ) (चित्रः) अद्भुतः (न) इव (यामन्) यामनि (अश्विनोः) सूर्य्याचन्द्रमसोः (अनिवृतः) निरन्तरः (परि) सर्वतः (वृणक्ति) छिनत्ति (अश्मनः) पाषाणस्य मेघस्य वा (तृणा) तृणानि घासविशेषान् (दहन्) भस्मीकुर्वन् ॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। घर्षणेन जातबलोऽग्निः काष्ठादीनि दहन्नश्ववद्वेगवान् भवन्नद्भुतानि कार्य्याणि साध्नोतीति वेद्यम् ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो मनुष्य (बाहुभिः) बाहुओं से (यदि) यदि अग्नि को (मन्थन्ति) मन्थते हैं तो वह (वनेषु) किरणों में (अरुषः) मर्मस्थलों में वर्त्तमान (वाजी) वेगयुक्त (अश्वः) उत्तम घोड़े के (न) सदृश (वि) (आ, रोचते) विशेषभाव से प्रकाशित होता है (अश्विनोः) सूर्य्य चन्द्रमा के मध्य में (अनिवृतः) निरन्तर प्राप्त (यामन्) रात्रि में (चित्रः) अद्भुत के (न) तुल्य (तृणा) घास विशेषों को (दहन्) भस्म करता हुआ (अश्मनः) पत्थर वा मेघ का (परि) सब प्रकार (वृणक्ति) छेदन करता है, उसको इसप्रकार सब लोग प्रकट करें ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। घिसने से बलयुक्त हुआ अग्नि काष्ठ आदि को जलाता और घोड़े के तुल्य वेगवान् होता हुआ अद्भुत कार्य्यों को सिद्ध करता है, यह जानना चाहिये ॥६॥

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    विषय

    निर्विघ्नता

    पदार्थ

    [१] यदि जब (बाहुभिः) = प्रयत्नों से, अर्थात् यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगे रहने के साथ (मन्थन्ति) = उस प्रभु का मन्थन व विचार करते हैं, तो वह प्रभु (वनेषु) = इन उपासकों में (आविरोचते) = सर्वथा विशिष्ट दीप्तिवाले होते हैं । (अश्वः न) = वे प्रभु इन उपासकों के लिए अश्व के समान होते हैं। जैसे 'अश्व' लक्ष्य-स्थान पर पहुँचाने में सहायक होता है, उसी प्रकार ये उपासक प्रभु द्वारा लक्ष्य स्थान पर पहुँचते हैं। (वाजी) = प्रभु इन उपासकों के लिए शक्ति देनेवाले व (अरुषः) = आरोचमान होते हैं। प्रभु इन उपासकों को शरीर में शक्ति तथा मस्तिष्क में दीप्ति प्राप्त कराते हैं । [२] (अश्विनोः) = प्राणापान की साधना करनेवाले पति-पत्नी के (यामन्) = जीवन मार्ग में ये प्रभु (चित्रः न) = ज्ञान देनेवाले के समान होते हैं [चित् + र] । (अनिवृतः) = किसी भी अन्य से प्रभु की गति रोकी नहीं जा सकती। प्रभु (अश्मनः) = परिवृणक्ति मार्ग में विघ्नरूप से आनेवाले इन पाषाणों को दूर करते हैं और (तृणा दहन्) = घास-फूँस को जला देते हैं। 'काम-क्रोध-लोभ' आदि आसुरभाव 'अश्मा' हैं, और संसार के विषय 'तृण' हैं। प्रभु इन्हें दूर करके उपासक के लिए मार्ग को निर्विघ्न करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु उपासक के मार्ग को निर्विघ्न करते हैं।

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    विषय

    अग्निवत् आत्मा और वीर ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (बाहुभिः मन्थन्ति) बाहुओं से रासें पकड़ कर अश्व को जब मथते, मथने के समान झटके लगाते हैं और तब (अश्वः न वाजी) वेगवान् अश्व जिस प्रकार (अरुषः) मर्म स्थानों पर ताड़ित होकर (विरोचते) विविध रूप में उछलता, कूदता, भागता है इसी प्रकार जब अग्नि को बाहुओं से मथते हैं तब भी (अश्वः) वह व्यापक अग्नि (अरुषः) सब प्रकार चमकता हुआ (वाजी) वेगवान् होकर (वनेषु विरोचते) किरणों और काष्ठों में विशेष रूप से चमकता है उसी प्रकार (यदि) जब (बाहुभिः) बाधित वा पीड़ित करने वाली सेनाओं से शत्रुओं को (मन्थन्ति) मथन या विनाश करते हैं तब (वाजी) संग्राम करने में कुशल पुरुष (वनेषु) प्राप्त करने योग्य ऐश्वर्यों को प्राप्त करने के निमित्त वा सैन्य दलों के बीच (अरुषः) तेजस्वी या रोषरहित होकर (विरोचते) विशेष रूप से चमकता और सर्वप्रिय होता है। (अश्विनोः यामन् चित्रः न) दिन रात्रि के प्रहरों में जिस प्रकार सूर्य (अनिवृतः) अबाधित होकर (तृणा दहन् अश्मनः परिवृणक्ति) घासों को ताप से झुलसाता हुआ तीव्र ताप से ही मेघों को सर्वत्र छादित करता है और जिस प्रकार (अश्विनोः चित्रः न) अश्व के स्वामी रथी और सारथी दोनों का चित्र गति से जाने वाला अश्व (यामन्) मार्ग में (अनिवृतः) अबाधित होकर (तृणा दहन् अश्मनः परिवृणक्ति) तुच्छ घासों को खाता हुआ भी शत्रु के हथियारों को चीर कर निकल जाता है और जिस प्रकार अग्नि (अश्विनोः यामन् चित्रः) दिन रात्रि के कालों में अद्भुत रूप होकर (तृणा दहन् अश्मनः परिवृणक्ति) तिनकों को जलाता हुआ पत्थरों को तड़का देता है उसी प्रकार वीर तेजस्वी पुरुष भी (अश्विनोः) अश्व सैन्य के स्वामी स्वपक्ष और परपक्ष, दोनों के (यामन्) संयमन या वश करने में (चित्रः) अद्भुत कुशल होकर (अनिवृतः) किसी से भी बाधित न होकर (तृणा दहन्) तृणकों के समान तुच्छ वा हिंसाकारी शत्रु सैन्यों को अग्नि के समान भस्म करता हुआ (अश्मनः) शस्त्रों आयुधों को (परि वृणक्ति) छिन्न भिन्न कर देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ १–४, ६–१६ अग्नि। ५ ऋत्विजोग्निर्वा देवता॥ छन्दः—१ निचृदनुष्टुप्। ४ विराडनुष्टुप्। १०, १२ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः। ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। ७, ९, १६ निचृत् त्रिष्टुप्। ११, १४, १५ जगती ॥ षडदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. घर्षणाने बलवान झालेला अग्नी काष्ठ इत्यादींना जाळतो व घोड्याप्रमाणे वेगवान बनून अद्भुत कार्य सिद्ध करतो, हे जाणले पाहिजे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    When the yajakas chum the arani woods with their arms to produce Agni, it rises like a potent force and shines in flames, radiant as in the light waves of the sun and moon in circuitous motion, incessant and wondrous beautiful, and it burns the grass all round on earth, dislodges the stones on mountains and breaks the clouds in the sky.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of enlightened persons is dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    When men rub (the sticks etc.) with their arms, the radiant fire bursts forth in it rays and shines like the graded beautiful fleet of horse. During the day and at night being very splendid and restrained, it burns the grass and makes sound in the stones.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When the fire generated by rubbing becomes impetuous, it burns the fuel and grass etc. and like a speedy horse accomplishes wonderful works.

    Foot Notes

    (वनेषु ) किरणेषु | वनमिति रश्मि नाम (N.G. 1, 5) = In the rays. (अनिवृतः) निरन्तरः। = Un-restrained. (अरुष:) मर्मसु स्थितः । अरुषम् इति रूपनाम ( N. G. 3-7) = Goaded in delicate parts. (अश्विनौ ) सूर्य्यांचन्द्रमसौ । (अश्विनौ) तत् कावश्विनी द्यावापृथिव्यावित्येके अहोरात्रावित्येके सूर्याचन्द्रमसावित्येके (N.R.T. 12, 1, 1 ) = Earth and firmament.

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