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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - अग्निः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    इळा॑यास्त्वा प॒दे व॒यं नाभा॑ पृथि॒व्या अधि॑। जात॑वेदो॒ नि धी॑म॒ह्यग्ने॑ ह॒व्याय॒ वोळ्ह॑वे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इळा॑याः । त्वा॒ । प॒दे । व॒यम् । नाभा॑ । पृ॒थि॒व्याः । अधि॑ । जात॑ऽवेदः । नि । धी॒म॒हि॒ । अग्ने॑ । ह॒व्याय॑ । वोळ्ह॑वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इळायास्त्वा पदे वयं नाभा पृथिव्या अधि। जातवेदो नि धीमह्यग्ने हव्याय वोळ्हवे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इळायाः। त्वा। पदे। वयम्। नाभा। पृथिव्याः। अधि। जातऽवेदः। नि। धीमहि। अग्ने। हव्याय। वोळ्हवे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे विद्वांसो यथा वयमिडाया अधि पदे पृथिव्या नाभा हव्याय वोढवे त्वा तं जातवेदोऽग्ने जातवेदसमग्निं निधीमहि तथैव यूयमपि निधत्त ॥४॥

    पदार्थः

    (इडायाः) पृथिव्याः (त्वा) तम् (पदे) प्राप्ते (वयम्) (नाभा) मध्ये (पृथिव्याः) अन्तरिक्षस्य (अधि) उपरि (जातवेदः) जातवित्तम् (नि) (धीमहि) नितरां धरेम (अग्ने) अग्निम्। अत्र सर्वत्र पुरुषव्यत्ययः। (हव्याय) प्रशंसनीयाय (वोढवे) वाहनाय ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। य इमं वह्निं पृथिव्या उपर्य्यन्तरिक्षस्य मध्ये सुपरीक्ष्य यानादिचालनायाऽग्निं निदधति ते निधिमन्तो भवन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे विद्वान् जनो ! जैसे (वयम्) हम लोग (इडायाः) पृथिवी के (अधि) ऊपर (पदे) प्राप्त होने पर (पृथिव्याः) अन्तरिक्ष के (नाभा) मध्य में (हव्याय) प्रशंसा करने योग्य (वोढवे) वाहन के लिये (त्वा) उस (जातवेदः) धनों के उत्पन्नकर्त्ता (अग्ने) अग्नि को (नि) (धीमहि) उत्तम प्रकार धारण करें, वैसे ही आप लोग भी धारण करो ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग इस अग्नि की पृथिवी के ऊपर और अन्तरिक्ष के मध्य में उत्तम प्रकार परीक्षा ले के वाहन आदि चलाने के लिये अग्नि को धारण करते हैं, वे धनयुक्त होते हैं ॥४॥

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    विषय

    स्वाध्याय+यज्ञ

    पदार्थ

    [१] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (त्वा) = आपको (वयम्) = हम (निधीमहि) = निश्चय से अपने हृदयों में धारण करते हैं एक तो (इडायाः पदे) = वेदवाणी के शब्दों में तथा दूसरे (पृथिव्याः नाभा अधि) = [अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः] यज्ञों में। प्रभुदर्शन का प्रथम साधन तो यह है कि हम स्वाध्याय द्वारा इन वेदवाणी के शब्दों में आपके प्रकाश को देखें। जितना जितना हमारा ज्ञान बढ़ेगा, हम आपके समीप होते चलेंगे। दूसरा साधन 'यज्ञ' है । प्रभु यज्ञरूप हैं। यज्ञरूप प्रभु का यज्ञ से ही उपासन होता है। [२] हे (अग्ने) = परमात्मन्! हम आपका उपासन इसलिए करते हैं कि (हव्याय वोढवे) = आप हमारे लिए हव्यपदार्थों का वहन करें। आपकी उपासना से सब पवित्र यज्ञिय-पदार्थों की हमें प्राप्ति होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ - स्वाध्याय तथा यज्ञ हमें प्रभु का सामीप्य प्राप्त कराते हैं। प्रभु हमारे लिये हव्यपदार्थों को देते हैं ।

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    विषय

    अग्रणी नायक की अधिस्थापना।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! तेजस्विन्! हे (जातवेदः) विद्वन् ! हे ऐश्वर्यवन् (पृथिव्या नाभा अधि) पृथिवी अर्थात् अन्तरिक्ष के बीच मैं (हव्याय बोढवे) ग्रहण करने, चलाने के लिये जिस प्रकार महान् सूर्य है उसी प्रकार (इळायाः पदे) भूमि के सर्वोच्च शासक पद पर और (इळायाः पदे) वाणी के उत्तम ज्ञान के निमित्त (पृथिव्या नाभा अधि) पृथिवी राज्य के केन्द्र में और विस्तृत नगर भूमि के बीच (त्वा) तुझको (हव्याय) कर और ऐश्वर्य के रूप में स्वीकारने योग्य राज्य को (वोढवे) वहन करने के लिये (त्वा निधीमहि) तुझे स्थापित करें। इसी प्रकार हे (जातवेदः) विद्याओं में निष्णात ! तुझको (हव्याय बोढवे) प्रदान योग्य ज्ञान कोष के धारण करने और अन्यों तक पहुँचाने के लिये (नि धीमहि) नियुक्त करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ १–४, ६–१६ अग्नि। ५ ऋत्विजोग्निर्वा देवता॥ छन्दः—१ निचृदनुष्टुप्। ४ विराडनुष्टुप्। १०, १२ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः। ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। ७, ९, १६ निचृत् त्रिष्टुप्। ११, १४, १५ जगती ॥ षडदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक पृथ्वीवर व अंतरिक्षात उत्तम प्रकारे परीक्षा करून वाहन इत्यादीमध्ये चालविण्यासाठी अग्नीचा उपयोग करतात ते श्रीमंत होतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, immanent fire energy, we place you and light you in the vedi on the floor of the earth in order that our oblations into the fire of yajna be carried across the globe and into the midst of the sky.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of fire is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons! we place the fire, which is the source of great wealth, is on proper utilization or above the earth and is in the middle of the firmament, for conducting admirable vehicles. So, you should also emulate it.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The persons having tested well the properties of Agni (fire and electricity) on and above the earth and in the middle of the firmament, utilize it for driving various vehicles. Indeed, they become the masters of great treasures of wealth.

    Foot Notes

    (इडायाः) पृथिव्याः । इडेति पृथिवीनाम (N.G. 1, 1) = Of the earth. (पृथिव्याः) अन्तरिक्षस्य। पृथिवीत्यन्तरिक्षनाम (N.G. 1, 3) = Of the firmament.

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