ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 9
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
कृ॒णोत॑ धू॒मं वृष॑णं सखा॒योऽस्रे॑धन्त इतन॒ वाज॒मच्छ॑। अ॒यम॒ग्निः पृ॑तना॒षाट् सु॒वीरो॒ येन॑ दे॒वासो॒ अस॑हन्त॒ दस्यू॑न्॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒णोत॑ । धू॒म॑म् । वृष॑णम् । स॒खा॒यः॒ । अस्रे॑धन्तः । इ॒त॒न॒ । वाज॑म् । अच्छ॑ । अ॒यम् । अ॒ग्निः । पृ॒त॒ना॒षाट् । सु॒ऽवीरः॑ । येन॑ । दे॒वासः॑ । अस॑हन्त । दस्यू॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
कृणोत धूमं वृषणं सखायोऽस्रेधन्त इतन वाजमच्छ। अयमग्निः पृतनाषाट् सुवीरो येन देवासो असहन्त दस्यून्॥
स्वर रहित पद पाठकृणोत। धूमम्। वृषणम्। सखायः। अस्रेधन्तः। इतन। वाजम्। अच्छ। अयम्। अग्निः। पृतनाषाट्। सुऽवीरः। येन। देवासः। असहन्त। दस्यून्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे विद्वांसो यूयमस्रेधन्तः सखायः सन्तो वृषणं धूमं कृणोत वाजमच्छेतन योऽयमग्निरिव पृतनाषाट् सुवीरोऽस्ति येन सह देवासो दस्यूनसहन्त तमितन ॥९॥
पदार्थः
(कृणोत) कुरुत (धूमम्) वाष्पाख्यम् (वृषणम्) जलेन सुसिक्तम् (सखायः) सुहृदः सन्तः (अस्रेधन्तः) अक्षीणोत्साहाः (इतन) प्राप्नुत (वाजम्) अन्नवेगविज्ञानादिकम् (अच्छ) सम्यक् (अयम्) (अग्निः) विद्युदिव (पृतनाषाट्) यः पृतनाः सेनाः सहते (सुवीरः) शोभना वीरा यस्य (येन) सह (देवासः) विद्वांसः शूराः (असहन्त) सहन्ते (दस्यून्) अतिदुष्टकर्मकारिणः ॥९॥
भावार्थः
हे विद्वांसः काष्ठाग्निजलसंयोगजेन धूमेनाऽनेकानि कार्य्याणि परस्परं सुहृदो भूत्वा साध्नुत यथा धार्मिका विद्वांसः शूरा दस्यून् हत्वा राजानो भवन्ति तथैवायमग्निः संप्रयुक्तः सन् दारिद्र्यादीन्हत्वाऽसंख्यं धनं निष्पादयतीति ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! आप लोग (अस्रेधन्तः) उत्साह से पूरित (सखायः) मित्र हुए (वृषणम्) जल से अच्छे प्रकार सींचे गये (धूमम्) भाफ को (कृणोत) करो (वाजम्) अन्न वेग और विज्ञान आदि को (अच्छ) उत्तम प्रकार (इतन) प्राप्त होओ तो (अयम्) यह (अग्निः) बिजुली के सदृश तेजस्वी (पृतनाषाट्) सेनाओं के सहित वर्त्तमान (सुवीरः) श्रेष्ठ वीरों से युक्त और (येन) जिस पुरुष के साथ (देवासः) विद्वान् वा शूर लोग (दस्यून) अति दुष्ट कर्म करनेवाले जनों को (असहन्त) सहते हैं, उसको प्राप्त होइये ॥९॥
भावार्थ
हे विद्वान् जनो ! काष्ठ अग्नि और जल के संयोग से उत्पन्न हुए धूम से अनेक कार्य्यों को परस्पर मित्रभाव के साथ सिद्ध करो। जैसे धर्मपूर्वक वर्त्ताव रखनेवाले विद्यायुक्त शूरवीर पुरुष दुष्टकर्मकारियों का नाश करके राजा होते हैं, वैसे ही यह अग्नि उत्तम प्रकार यन्त्र आदि से युक्त किया गया दारिद्र्य आदि को नाश करके अनगिनती धन को उत्पन्न करता है ॥९॥
विषय
देवों द्वारा दस्युओं का पराभव
पदार्थ
[१] हे (सखायः) = मित्रो ! (धूमम्) = उस वासनाओं को कम्पित करके दूर करनेवाले को (कृणोत) = उपासित करो । जो प्रभु (वृषणम्) = शक्तिशाली हैं। हमारी वासनाओं को विनष्ट करके हमें भी वे शक्तिशाली बनाते हैं। (अस्त्रेधन्तः) = अहिंसित होते हुए-अक्षीण होते हुए (वाजं अच्छ) = शक्ति की ओर (इतन) = चलो। वासनाएँ शक्ति का क्षय करती हैं। जब हम वासनाओं से हिंसित नहीं होते, तो अपनी शक्ति को सुरक्षित कर पाते हैं। [२] (अयम्) = यह (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (पृतनाषाट्) = शत्रु सैन्यों का पराभव करनेवाला है। (सुवीरः) = उत्तम वीर है । (येन) = जिसद्वारा (देवासः) = देववृत्ति के पुरुष (दस्यून्) = दस्युओं को विनाशक वृत्तियों को असहन्त पराभूत करते हैं । वस्तुतः प्रभु को आगे करके ही देव विजयी बनते हैं। हम देव बनें, महादेव के समीप उपस्थित होनेवाले हों। ये महादेव कामदेव को अवश्य भस्म करेंगे।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का हम उपासन करें। प्रभु हमारे वासनारूप शत्रुओं को विनष्ट करेंगे और हमें शक्तिशाली बनाएँगे ।
विषय
अग्नि आचार्य और वीर पुरुष।
भावार्थ
(येन) जिस द्वारा (देवासः) विद्वन् वीर लोग (दस्यून्) प्रजा का नाश करने वाले दुष्ट शत्रुओं को (असहन्त) पराजित करते हैं (अयम्) यह (अग्निः) अग्नि के समान तेजस्वी, अग्रणी वीर पुरुष (पृतनाषाट्) शत्रु सेनाओं को पराजित करने हारा (सुवीरः) उत्तम वीर, वीर्यवान् हो। ऐसे ही (धूमं) शत्रुओं को कंपा देने वाले (वृषणं) बलवान् पुरुष को (कृणोत) अपने में उत्पन्न करो और हे (सखायः) मित्रगण ! आप लोग (अस्रेधन्तः) नाश को न प्राप्त होते हुए सदा बलशाली बनो (वाजम्) संग्राम में (अच्छ इतन) अपने शत्रु पर जा चढ़ो। (२) हे विद्वान् शिष्य जनो ! आप लोग ज्ञान के वर्षक अज्ञान के नाशक पुरुष को आश्रय करो। अपने वीर्य का नाश न करते हुए, ब्रह्मचारी रहकर (वाजं) ज्ञान को प्राप्त करो। यह ज्ञानी सब मनुष्यों में सहनशील, तपस्वी, (सु-वि-इरः) उत्तम विविध विद्याओं का उपदेष्टा है, जिसके द्वारा विद्या की कामनावाले जन काम क्रोधादि आत्म-नाशक भावों को पराजित करते हैं। आत्मा परमात्मा और योगी पक्ष में—वे असङ्ग, ज्ञान निर्धूत कल्पश होने से धूम, ज्ञान सुख वर्षक धर्ममेघ से ‘वृषभ’ हैं। शेष स्पष्ट है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ १–४, ६–१६ अग्नि। ५ ऋत्विजोग्निर्वा देवता॥ छन्दः—१ निचृदनुष्टुप्। ४ विराडनुष्टुप्। १०, १२ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः। ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। ७, ९, १६ निचृत् त्रिष्टुप्। ११, १४, १५ जगती ॥ षडदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वान लोकांनो! काष्ठ, अग्नी व जलाच्या संयोगाने उत्पन्न झालेल्या धुराने अनेक प्रकारचे कार्य परस्पर मित्रभावाने सिद्ध करा. जसे धर्मपूर्वक वर्तन करणारे विद्यावान शूरवीर पुरुष दुष्ट कर्म करणाऱ्याचा नाश करून राजे होतात, तसेच हा अग्नी उत्तम प्रकारे यंत्र इत्यादींनीयुक्त केल्यास दारिद्र्याचा नाश करून असंख्य प्रकारचे धन उत्पन्न करतो. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Friends, comrades of yajna, create the clouds of vapours and steam, laden with rain showers of wealth and fertility, immediately, unerringly, enthusiastically. Move forward and rise to the heights of strength, energy and power. This fire of yajna is the winner of battles, heroic, by which good people challenge and win over the forces of evil.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of fire is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! never losing zeal and being friendly to one another, produce steam sprinkled well with water. Also get food speedily and scientific knowledge etc. thereby. You have a good hero who is quick like electric fire and subdues the hordes of enemies. Through his help, brave and learned persons overcome their adversaries.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! accomplish many works in a friendly manner with the steam produced by the combination of fuel/ fire and water. As righteous and heroic learned persons become rulers by slaying the wicked persons and robbers etc., the same way this fire energy when utilized scientifically eradicates poverty and enables men to acquire abundant wealth.
Foot Notes
(अस्रो धन्तः) अक्षीणोत्साहा:। ( अस्त्रे धन्तः) नञ्-स्त्रिधक्षयार्थ:। = Not losing spirits and zeal. (धूमम् ) वाष्पाख्यम् । = Smokes in the form of steam. (वृषणम्) जलेन सुसिक्तम् । = Sprinkled well with water. (वाजम् ) अन्नवेगविज्ञानादिकम् । वाज इति अन्ननाम (N.G. 2, 7) वाज | = Food, speed and scientific knowledge etc. There is clear reference to the transports like the steam/electric locomotives. Here Shri Sayanacharya has taken धूम: as धुनोति कम्पयतीति धुमोग्नि:, while Rishi Dayananda had taken it to mean smoke in the form of steam.
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