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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 57 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 57/ मन्त्र 2
    ऋषिः - विश्वामित्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रः॒ सु पू॒षा वृष॑णा सु॒हस्ता॑ दि॒वो न प्री॒ताः श॑श॒यं दु॑दुह्रे। विश्वे॒ यद॑स्यां र॒णय॑न्त दे॒वाः प्र वोऽत्र॑ वसवः सु॒म्नम॑श्याम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । सु । पू॒षा । वृष॑णा । सु॒ऽहस्ता॑ । दि॒वः । न । प्री॒ताः । श॒श॒यम् । दु॒दु॒ह्रे॒ । विश्वे॑ । यत् । अ॒स्या॒म् । र॒णय॑न्त । दे॒वाः । प्र । वः॒ । अत्र॑ । व॒स॒वः॒ । सु॒म्नम् । अ॒श्या॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रः सु पूषा वृषणा सुहस्ता दिवो न प्रीताः शशयं दुदुह्रे। विश्वे यदस्यां रणयन्त देवाः प्र वोऽत्र वसवः सुम्नमश्याम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। सु। पूषा। वृषणा। सुऽहस्ता। दिवः। न। प्रीताः। शशयम्। दुदुह्रे। विश्वे। यत्। अस्याम्। रणयन्त। देवाः। प्र। वः। अत्र। वसवः। सुम्नम्। अश्याम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 57; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (विश्वे देवाः) समस्त प्रकाशमान किरण जिस प्रकार (अस्यां) इस पृथिवी पर (रणयन्त) रमण या क्रीड़ा करते हैं वे (दिवः न) सूर्य प्रकाशों के समान (प्रीताः) प्रिय, एवं जल द्वारा आकाश को पूर्ण करने वाले होकर ही (शशयं) आकाश में व्यापक मेघ को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार (इन्द्रः) सूर्य, विद्युत् और (पूषा) सर्व पोषक पृथिवी (वृषणा) जल वृष्टि करने वाले और (सुहस्ता) सुखपूर्वक, एक दूसरे से प्रसन्न हो (शशयं दुदुह्रे) मेघ और अन्न को उत्पन्न करते हैं। (वसवः) सब प्राणिगण उन किरणों का सुख प्राप्त करते हैं इसी प्रकार (यत् देवाः) जो विद्वान् पुरुष (अस्यां) इस वाणी में (रणयन्त) रमण करते हैं वे (दिवः न प्रीताः) सूर्य के प्रकाशों के समान प्रसन्न होकर वा (दिवः न) सूर्य के समान तेजस्वी गुरु से (प्रीताः) ज्ञान तृप्त होकर (शशयं सुम्नम् सु दुदुह्रे) अन्तर्हृदयाकाश में व्याप्त सुख को प्रदान करते हैं। और (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् ज्ञानवान् विद्वान् वा परमेवर और (पूषा) सर्व पोषक, आचार्य दोनों (वृषणा) ज्ञान के वृष्टि करने वाले (सुहस्ता) उत्तम दानशील हाथों से युक्त वा सुप्रसन्न होकर (शशयं सुम्नं दुदुह्रे) सूर्य पृथिवी के समान ही अन्तर्व्याप्त सुख उत्पन्न करते हैं। और हे (वसवः) आचार्य के अधीन निवास करने वाले विद्वान् जनों और घरों में बसे गृहस्थ जनो ! (वः) आप लोगों के (सुम्नम्) उत्तम मननयोग्य ज्ञान और सुख को मैं (अत्र) यहां (अश्याम्) उपभोग करूं। (२) राष्ट्रपक्ष में—इन्द्र राजा, पूषा पृथिवी निवासी प्रजागण दोनों ‘सुहस्त’ हैं एक युद्ध विद्या में, दूसरे कृषि व्यापार आदि में और कर आदि देने में कुशल वे दोनों और ‘वसु’ अर्थात् राष्ट्र को बसाने, उसमें बसने वाले सभी सुख, समृद्धि पूर्ण करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:- १, ३, ४ त्रिष्टुप् । २, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप॥ धैवतः स्वरः॥

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