ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 59/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - मित्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मि॒त्रो जना॑न्यातयति ब्रुवा॒णो मि॒त्रो दा॑धार पृथि॒वीमु॒त द्याम्। मि॒त्रः कृ॒ष्टीरनि॑मिषा॒भि च॑ष्टे मि॒त्राय॑ ह॒व्यं घृ॒तव॑ज्जुहोत॥
स्वर सहित पद पाठमि॒त्रः । जना॑न् । या॒त॒य॒ति॒ । ब्रु॒वा॒णः । मि॒त्रः । दा॒धा॒र॒ । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । मि॒त्रः । कृ॒ष्टीः । अनि॑ऽमिषा । अ॒भि । च॒ष्टे॒ । मि॒त्राय॑ । ह॒व्यम् । घृ॒तऽव॑त् । जु॒हो॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मित्रो जनान्यातयति ब्रुवाणो मित्रो दाधार पृथिवीमुत द्याम्। मित्रः कृष्टीरनिमिषाभि चष्टे मित्राय हव्यं घृतवज्जुहोत॥
स्वर रहित पद पाठमित्रः। जनान्। यातयति। ब्रुवाणः। मित्रः। दाधार। पृथिवीम्। उत। द्याम्। मित्रः। कृष्टीः। अनिऽमिषा। अभि। चष्टे। मित्राय। हव्यम्। घृतऽवत्। जुहोत॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 59; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - ‘मित्र’ का लक्षण।
भावार्थ -
(मित्रः) जो पुरुष प्रजाओं को मरने से बचावे, स्नेह करे, जिसको सब कोई उत्तम करके जाने, और जो स्नेह से सबकी रक्षा करे वह पुरुष ‘मित्र’ कहाता है। वह ही (जनान्) सब मनुष्यों को (ब्रुवाणः) उपदेश करता हुआ (यातयति) नाना प्रकार के यत्न पुरुषार्थ आदि कराता है। वह (मित्रः) सबका स्नेही, सूर्य के समान महान्, परमेश्वर वा राजा (पृथिवीम् उत द्याम) भूमि और आकाश को (दाधार) धारण करता है। (मित्रः) सूर्य के समान वह (कृष्टीः) कृषकों वा सामान्य मनुष्यों को भी (अनिमिषा) रात दिन (अभिचष्टे) देखता है। उस (मित्राय) राष्ट्र, प्रजा के पालक, स्नेही, त्राता के लिये (घृतवत् हव्यं) घृत से युक्त अन्न और तेजोयुक्त अन्य ग्राह्य पदार्थ (जुहोत) प्रदान करो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ मित्रा देवता॥ छन्दः— १, २, ५ त्रिष्टुप्। ३ निचृत्त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् पंक्तिः। ६, ९ निचृद्वायत्री। ७, ८ गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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