ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दि॒वक्ष॑सो धे॒नवो॒ वृष्णो॒ अश्वा॑ दे॒वीरा त॑स्थौ॒ मधु॑म॒द्वह॑न्तीः। ऋ॒तस्य॑ त्वा॒ सद॑सि क्षेम॒यन्तं॒ पर्येका॑ चरति वर्त॒निं गौः॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वक्ष॑सः । धे॒नवः॑ । वृष्णः॑ । अश्वाः॑ । दे॒वीः । आ । त॒स्थौ॒ । मधु॑ऽमत् । वह॑न्तीः । ऋ॒तस्य॑ । त्वा॒ । सद॑सि । क्षे॒म॒ऽयन्त॑म् । परि॑ । एका॑ । च॒र॒ति॒ । व॒र्त॒निम् । गौः ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवक्षसो धेनवो वृष्णो अश्वा देवीरा तस्थौ मधुमद्वहन्तीः। ऋतस्य त्वा सदसि क्षेमयन्तं पर्येका चरति वर्तनिं गौः॥
स्वर रहित पद पाठदिवक्षसः। धेनवः। वृष्णः। अश्वाः। देवीः। आ। तस्थौ। मधुऽमत्। वहन्तीः। ऋतस्य। त्वा। सदसि। क्षेमऽयन्तम्। परि। एका। चरति। वर्तनिम्। गौः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
विषय - किरणों वाले सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की परिक्रमा, प्रकाश ग्रहगवत् शिष्यों की उपासना और ज्ञान ग्रहण। राजा प्रजा का व्यवहार।
भावार्थ -
(वृष्णः) जल वर्षण करने वाले सूर्य की (अश्वाः) व्यापनशील किरणें जो (दिवक्षसः) प्रकाश और आकाश में व्यापती हैं वे ही (धेनवः) स्वयं रस-पान करने वाली और संसार भर को रस-पान कराने वाली गौओं के समान हैं। उन (देवीः) प्रकाशमयी और (मधुम् उद्वहन्तीः) जल को ऊपर उठा लेने वाली किरणों को वह सूर्य ही (आतस्थौ) धारण करता है। और (ऋतस्य सदसि) जल के या इस गतिशील संसार की स्थिति के एकमात्र स्थान आकाश देश में (क्षेमयन्तं) रक्षा करने और सुख शान्ति देने वाले सूर्य के (परि) चारों ओर (एका गौः) एक यह पृथिवी (वर्तनि) वार २ लौटकर आने वाला मार्ग (चरति) चलती है। उसी प्रकार (वृष्णः) बलवान् पुरुष, राजा की ही (अश्वाः) शीघ्रगामिनी अश्व सेनाएं और (दिवक्षसः) विजय कामना में लगी और व्यवहार तथा विज्ञानोपार्जन में लगी प्रजाएं ही (धेनवः) उसकी रस पिलाने वाली गौओं के समान हैं। वह बलवान् पुरुष (देवीः) कर आदि देने और ऐश्वर्यादि की कामना करने वाली (मधुम् उद्वहन्तीः) अन्न और बल को उत्तम रीति से धारण करने वाली प्रजाओं पर गृहपति के समान (आ तस्थौ) अध्यक्षवत् विराजता है। हे राजन् ! (ऋतस्य) सत्य व्यवहार वा अन्न से पूर्ण (सदसि) राजसभा में और महलों में (क्षेमयन्तं) सबका कल्याण और प्रजा का रक्षण कार्य करते हुए (त्वा परि) तेरे ही आश्रय करके (एका गौः) यह समस्त पृथिवी (वर्त्तनिं) सन्मार्ग और लोक व्यवहार पर (चरति) चलती है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ६, ९, १० त्रिष्टुप्। २, ३, ४, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् पङ्क्तिः। ११ भुरिक् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
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