ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दि॒वक्ष॑सो धे॒नवो॒ वृष्णो॒ अश्वा॑ दे॒वीरा त॑स्थौ॒ मधु॑म॒द्वह॑न्तीः। ऋ॒तस्य॑ त्वा॒ सद॑सि क्षेम॒यन्तं॒ पर्येका॑ चरति वर्त॒निं गौः॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वक्ष॑सः । धे॒नवः॑ । वृष्णः॑ । अश्वाः॑ । दे॒वीः । आ । त॒स्थौ॒ । मधु॑ऽमत् । वह॑न्तीः । ऋ॒तस्य॑ । त्वा॒ । सद॑सि । क्षे॒म॒ऽयन्त॑म् । परि॑ । एका॑ । च॒र॒ति॒ । व॒र्त॒निम् । गौः ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवक्षसो धेनवो वृष्णो अश्वा देवीरा तस्थौ मधुमद्वहन्तीः। ऋतस्य त्वा सदसि क्षेमयन्तं पर्येका चरति वर्तनिं गौः॥
स्वर रहित पद पाठदिवक्षसः। धेनवः। वृष्णः। अश्वाः। देवीः। आ। तस्थौ। मधुऽमत्। वहन्तीः। ऋतस्य। त्वा। सदसि। क्षेमऽयन्तम्। परि। एका। चरति। वर्तनिम्। गौः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैः कीदृशी वाक् सेव्येत्याह।
अन्वयः
हे विद्वन् या ऋतस्य सदसि दिवक्षसो वृष्णोऽश्वादेवीर्मधुमद्वहन्तीर्धेनवो वाचः क्षेमयन्तं त्वैका गौर्वर्त्तनिं परिचरती वाऽऽतस्थौ तास्त्वं यथावद्विजानीहि ॥२॥
पदार्थः
(दिवक्षसः) दीप्तिं प्राप्य व्याप्ताः (धेनवः) वाचः (वृष्णः) बलिष्ठस्य (अश्वाः) आशुगामिनस्तुरङ्गा इव (देवीः) दिव्यस्वरूपाः (आ) (तस्थौ) समन्तात् तिष्ठति (मधुमत्) मधुराणि विज्ञानानि वर्त्तन्ते यस्मिँस्तत् (वहन्तीः) सुखं प्रापयन्त्यः (ऋतस्य) सत्यस्य (त्वा) त्वाम् (सदसि) सभायाम् (क्षेमयन्तम्) रक्षयन्तम् (परि) सर्वतः (एका) असहाया (चरति) गच्छति (वर्त्तनिम्) वर्त्तन्ते यस्मिँस्तं मार्गम् (गौः) या गच्छति सा भूमिः ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽसहाया पृथिवी स्वकक्षामार्गं नित्यं चलति तथैव सभ्यजनानां वाचो नियमेन मिथ्याभाषणं विहाय सत्यमार्गे गच्छन्ति य ईदृशीं वाणीं सेवन्ते न तेषां किञ्चिदकुशलं जायते ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों को कैसी वाणी का सेवन करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे विद्वान् पुरुष ! जो (ऋतस्य) सत्य की (सदसि) सभा में (दिवक्षसः) प्रकाश को प्राप्त हो व्याप्त हुई (वृष्णः) बलिष्ठ पुरुष के (अश्वाः) शीघ्रगामी घोड़ों के समान (देवीः) दिव्यस्वरूप (मधुमत्) कोमल विज्ञानवाले उस सुख को (वहन्तीः) प्राप्त कराती हुई (धेनवः) वाणी (क्षेमयन्तम्) रक्षा करते हुए (त्वा) आप को (एका) एक (गौः) अपनी कक्षा में चलनेवाली भूमि (वर्त्तनिम्) मार्ग को (परि, चरति) सब ओर से चलती हुई सी (आ, तस्थौ) स्थित होती उन वाणियों को आप यथावत् जानो ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे असहाय पृथिवी अपने कक्षा मार्ग में नित्य चलती है, वैसे ही सभ्यजनों की वाणी नियम से मिथ्याभाषण को छोड़ सत्य मार्ग में चलती हैं। जो ऐसी वाणी का सेवन करते हैं, उनकी कुछ भी हानि नहीं होती ॥२॥
विषय
ज्ञानवाणियों की प्राप्ति
पदार्थ
[१] (वृष्णः) = इस गतमन्त्र के अनुसार जीवन बनानेवाले शक्तिशाली पुरुष के (अश्वाः) = इन्द्रियाश्व (दिवक्षसः) = ज्ञान के प्रकाश में निवास करनेवाले [दिव्+क्षि] तथा (धेनवः) = उत्तम कर्मों द्वारा प्रीणित करनेवाले होते हैं । ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान में निवास करती हैं तो कर्मेन्द्रियाँ यज्ञादि उत्तम कर्मों में व्याप्त होती हैं। [२] यह व्यक्ति (मधुमद् वहन्तीः) = अत्यन्त माधुर्ययुक्त ज्ञान प्राप्त कराती हुई (देवी:) = दिव्यगुणों की जननी इन वेदवाणियों का (आतस्थौ) = अधिष्ठाता बनता है। इनका अध्ययन करता हुआ इनका अत्यन्त परिमार्जन करता है। [३] (ऋतस्य) = ऋत के-ठीक ज्ञान व ठीक कर्मों के (सदसि) = गृह में (क्षेमयन्तम्) = निवास को चाहते हुए (वर्तनिम्) = उस ज्ञान के अनुसार वर्तनेवाले (त्वां) = तुझ को (एका) = यह अद्वितीय (गौ:) = वेदवाणी परिचरति सेवित करती है। वेदवाणी इसके कार्यों को सिद्ध करती है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति में लगें और कर्मेन्द्रियाँ उत्तम कर्मों में । वेदवाणी के हम प्रिय हों। सदा ऋत में निवास की कामनावाले हों ।
विषय
किरणों वाले सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की परिक्रमा, प्रकाश ग्रहगवत् शिष्यों की उपासना और ज्ञान ग्रहण। राजा प्रजा का व्यवहार।
भावार्थ
(वृष्णः) जल वर्षण करने वाले सूर्य की (अश्वाः) व्यापनशील किरणें जो (दिवक्षसः) प्रकाश और आकाश में व्यापती हैं वे ही (धेनवः) स्वयं रस-पान करने वाली और संसार भर को रस-पान कराने वाली गौओं के समान हैं। उन (देवीः) प्रकाशमयी और (मधुम् उद्वहन्तीः) जल को ऊपर उठा लेने वाली किरणों को वह सूर्य ही (आतस्थौ) धारण करता है। और (ऋतस्य सदसि) जल के या इस गतिशील संसार की स्थिति के एकमात्र स्थान आकाश देश में (क्षेमयन्तं) रक्षा करने और सुख शान्ति देने वाले सूर्य के (परि) चारों ओर (एका गौः) एक यह पृथिवी (वर्तनि) वार २ लौटकर आने वाला मार्ग (चरति) चलती है। उसी प्रकार (वृष्णः) बलवान् पुरुष, राजा की ही (अश्वाः) शीघ्रगामिनी अश्व सेनाएं और (दिवक्षसः) विजय कामना में लगी और व्यवहार तथा विज्ञानोपार्जन में लगी प्रजाएं ही (धेनवः) उसकी रस पिलाने वाली गौओं के समान हैं। वह बलवान् पुरुष (देवीः) कर आदि देने और ऐश्वर्यादि की कामना करने वाली (मधुम् उद्वहन्तीः) अन्न और बल को उत्तम रीति से धारण करने वाली प्रजाओं पर गृहपति के समान (आ तस्थौ) अध्यक्षवत् विराजता है। हे राजन् ! (ऋतस्य) सत्य व्यवहार वा अन्न से पूर्ण (सदसि) राजसभा में और महलों में (क्षेमयन्तं) सबका कल्याण और प्रजा का रक्षण कार्य करते हुए (त्वा परि) तेरे ही आश्रय करके (एका गौः) यह समस्त पृथिवी (वर्त्तनिं) सन्मार्ग और लोक व्यवहार पर (चरति) चलती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ६, ९, १० त्रिष्टुप्। २, ३, ४, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् पङ्क्तिः। ११ भुरिक् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी पृथ्वी आपल्या कक्षेत नित्य चालते तशी सभ्य लोकांची वाणी मिथ्याभाषण सोडून नियमित सत्य मार्गाने चालते. जे अशा वाणीचे सेवन करतात, त्यांचे काहीही नुकसात होत नाही. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The waves of sound, eternal Vak, voice of omniscience, pervade the spaces. The currents of energy of the generous and omnipotent lord, Agni, are omnipresent. The lord alone pervades the celestial streams of energy and speech carrying the honey sweets of meaning and life’s wealth. In this world of truth and eternal law, O lord protector of all life and light, Agni, one energy, like a cow or the earth, goes round and round in orbit doing homage to you.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The type of ideal speech is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person! the speeches that are glorious, divine, conveying happiness and which are full of desirable knowledge stand before you. You are protector of all in the assembly of truth (truth-speakers), may they be single on their path, like the earth. You should know them well.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the earth without other's help rotates on its path regularly, in the same manner the speeches of the civilized and cultured persons expose all falsehood. They lead a man to the true path and nothing but to truth. Those who use such truthful and sweet speech (words), do not suffer.
Foot Notes
(दिवस:) दीप्ति प्राप्य व्याप्ता:। = Resplendent, Glorious. (मधुमत) मधुराणि विज्ञानानि वर्तन्ते यस्मिन्स्तत्। = Full of sweet knowledge. (वर्त्तनिम् ) वर्त्तन्ते यस्मिँस्तं मार्गम् = Path. (धेनवः ) वाच:। = Speeches.
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