ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 7/ मन्त्र 11
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
इळा॑मग्ने पुरु॒दंसं॑ स॒निं गोः श॑श्वत्त॒मं हव॑मानाय साध। स्यान्नः॑ सू॒नुस्तन॑यो वि॒जावाग्ने॒ सा ते॑ सुम॒तिर्भू॑त्व॒स्मे॥
स्वर सहित पद पाठइळा॑म् । अ॒ग्ने॒ । पु॒रु॒ऽदंस॑म् । स॒निम् । गोः । श॒श्व॒त्ऽत॒मम् । हव॑मानाय । सा॒ध॒ । स्यात् । नः॒ । सू॒नुः । तन॑यः । वि॒जाऽवा॑ । अ॒ग्ने॒ । सा । ते॒ । सु॒ऽम॒तिः । भू॒तु॒ । अ॒स्मे इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इळामग्ने पुरुदंसं सनिं गोः शश्वत्तमं हवमानाय साध। स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुमतिर्भूत्वस्मे॥
स्वर रहित पद पाठइळाम्। अग्ने। पुरुऽदंसम्। सनिम्। गोः। शश्वत्ऽतमम्। हवमानाय। साध। स्यात्। नः। सूनुः। तनयः। विजाऽवा। अग्ने। सा। ते। सुऽमतिः। भूतु। अस्मे इति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 7; मन्त्र » 11
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे अग्ने ! त्वं पुरुदंसं सनिमिळां साध। गोर्मध्ये हवमानाय शश्वत्तमं विज्ञानं साध येन नस्तनयो विजावा सूनुः स्यात्। हे अग्ने ते तव सा सुमतिरस्मे भूतु ॥११॥
पदार्थः
(इळाम्) प्रशंसनीयां वाचम् (अग्ने) प्रकाशात्मन् (पुरुदंसम्) पुरूणि दंसांसि कर्माणि विद्यन्ते यस्य तम् (सनिम्) संभजमानाम् (गोः) पृथिव्या मध्ये (शश्वत्तमम्) सदैव वर्त्तमानम् (हवमानाय) आददानाय (साध) (स्यात्) भवेत् (नः) अस्माकम् (सूनुः) अपत्यम् (तनयः) विद्यासुखप्रचारकः (विजावा) विशेषेण प्रसिद्धः (अग्ने) विद्वन् (सा) (ते) तव (सुमतिः) शोभना चासौ मतिश्च सा सुमतिः (भूतु) भवतु (अस्मे) अस्मभ्यम् ॥११॥
भावार्थः
मनुष्यैः सदैव विद्यायुक्तां वाचं प्रज्ञां च प्राप्य सुशिक्षितान् सन्तानान् कृत्वाऽनादिभूतं सुखं प्राप्तव्यं सदैवाऽऽप्तानां प्रज्ञा सर्वत्र प्रसारणीयेति ॥११॥ अत्राऽग्निसूर्य्यविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति सप्तमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (अग्ने) अपने शरीरात्मा के प्रकाश से युक्त विद्वान् ! आप (पुरुदंसम्) बहुत कर्मोंवाली (सनिम्) सम्यक् सेवन की हुई (इळाम्) प्रशंसा के योग्य वाणी को (साध) साधो (गोः) पृथिवी के बीच (हवमानाय) ग्रहण करते हुए के अर्थ (शश्वत्तमम्) सदैव वर्त्तमान विज्ञान को सिद्ध करो जिससे (नः) हमारा (विजावा) विशेष कर प्रसिद्ध (तनयः) विद्या और सुख का प्रचार करनेहारा (सूनुः) सन्तान (स्यात्) होवे। हे (अग्ने) विद्वन् ! (ते) आपकी (सा) वह (सुमतिः) उत्तम बुद्धि (अस्मे) हमारे लिये (भूतु) हो ॥११॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि सदैव विद्यायुक्त वाणी और बुद्धि को प्राप्त हो सन्तानों को उत्तम शिक्षा दे के अनादिरूप सुख को प्राप्त होवें और सदैव सत्यवादी विद्वानों की बुद्धि सर्वत्र फैलावें ॥११॥ इस सूक्त में अग्नि सूर्य्य और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह सातवाँ सूक्त और दूसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
वेदज्ञान-उत्तम सन्तानसुमति
पदार्थ
अर्थ ५.११ पर द्रष्टव्य है । सम्पूर्ण सूक्त जीवन की उत्तम स्थिति के साधनों का प्रतिपादन करता है। अगले सूक्त में भी यही विषय प्रवृत्त है -
विषय
उषाओं के समान प्रजाओं के कर्त्तव्य।
भावार्थ
व्याख्या देखो (मं० ३। सू० १। मं० २३) इति द्वितीयो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ६, ९, १० त्रिष्टुप्। २, ३, ४, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् पङ्क्तिः। ११ भुरिक् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी सदैव विद्यायुक्त वाणी व बुद्धी प्राप्त करावी, संतानांना उत्तम शिक्षण द्यावे व अनादि सुख प्राप्त करावे. सदैव सत्यवादी विद्वानांची बुद्धी सर्वत्र पसरवावी. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The holy Word and vision of Eternity, all-giving, abundance of the earth, everlasting of value, O lord of light and might of the universe, Agni, create and bless upon the supplicant yajaka. May there arise for us a generation of youth and children, dynamic and potent, and may we ever enjoy, we pray, the favours of your love and benevolence, living under your benign eye.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the learned persons are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
This mantra has been translated before (Rig. 3.5.11 and 3.6.11) so we need not dilate upon it here. 1. But the following words have different meanings here. Those words are तनयः which means hear विद्या सुखप्रचारक: Propogator of real knowledge and happiness. 2. (विजावा) विशेषेण प्रसिद्धः। Renowned or particularly famous. It has been repeated in the present context and for the sake of emphasis.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of all men to attain a speech endowed with true knowledge and good intellect and thereafter make their progeny well-trained. Thus they would attain eternal happiness and good intellect or understanding of the absolutely truthful persons, which should be propagated everywhere.
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