ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 8/ मन्त्र 11
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वन॑स्पते श॒तव॑ल्शो॒ वि रो॑ह स॒हस्र॑वल्शा॒ वि व॒यं रु॑हेम। यं त्वाम॒यं स्वधि॑ति॒स्तेज॑मानः प्रणि॒नाय॑ मह॒ते सौभ॑गाय॥
स्वर सहित पद पाठवन॑स्पते । श॒तऽव॑ल्शः । वि । रो॒ह॒ । स॒हस्र॑ऽवल्शाः । वि । व॒यम् । रु॒हे॒म॒ । यम् । त्वाम् । अ॒यम् । स्वऽधि॑तिः । तेज॑मानः । प्र॒ऽनि॒नाय॑ । म॒ह॒ते । सौभ॑गाय ॥
स्वर रहित मन्त्र
वनस्पते शतवल्शो वि रोह सहस्रवल्शा वि वयं रुहेम। यं त्वामयं स्वधितिस्तेजमानः प्रणिनाय महते सौभगाय॥
स्वर रहित पद पाठवनस्पते। शतऽवल्शः। वि। रोह। सहस्रऽवल्शाः। वि। वयम्। रुहेम। यम्। त्वाम्। अयम्। स्वऽधितिः। तेजमानः। प्रऽनिनाय। महते। सौभगाय॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 8; मन्त्र » 11
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
विषय - वटवत् राजा या आचार्य का शाखा प्रशाखाओं में बढ़ना। पक्षान्तर में सूक्त की यज्ञ-यूपों में योजना। श्लेष से किरणों, विद्वानों प्राणों वीर सैनिकों की ओर योजना का निर्देश।
भावार्थ -
हे (वनस्पते) महावृक्ष के समान याचनाशील और ऐश्वर्यों के सेवन करने वाले जनो और भोग्य ऐश्वर्यों के पालक राजन् ! शिष्यों के पालक विद्वन् ! सैन्य दलों के पालक सेनापते ! तुझको (स्वधितिः) अपने बल से धारण करने योग्य उत्तम शस्त्रबल और शास्त्रबल (तेजमानः) तीक्ष्ण करता हुआ (महते सौभगाय) बड़े भारी सौभाग्य ऐश्वर्य के प्राप्त करने के लिये (प्र-निनाय) उत्कर्ष युक्त पद पर पहुंचाता है। शस्त्र से काटा जा कर पुनः सहस्रों शाखाओं से फूटने वाला वट आदि वनस्पति जिस प्रकार (शतवल्शः सहस्रवल्शः) सैकड़ों और सहस्रों शाखाओं और अंकुरों से युक्त होकर वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार तू (शतवल्शः) सैकड़ों शाखाओं और (सहस्रवलशः) हज़ारों अंग प्रत्यंग, एवं पुत्र पौत्रादि रूप शाखाओं और अंकुरों से युक्त होकर (विरोह) विविध प्रकार से उन्नत हो। और (वयम्) हम भी (विरुहेम ) विविध प्रकार से वनस्पतियों के समान ही उत्पन्न होकर वृद्धि को प्राप्त हों।
यज्ञ में यह सूक्त उपचार से यज्ञवेदी में स्थित यूपों के वर्णन में लगाया जाता है। (१) वृक्ष के काष्ठ से बना हुआ यूप वनस्पति है, उसको ऋत्विज् लोग घृत से चुपड़ते हैं। वेदी पर स्थित होता है। (३) माप २ कर बनाया जाता है (४) वस्त्र से सजाया जाता है । (६) शस्त्र से है काटा जाता है, (९) बहुत से यूप एक पंक्ति में खड़े किये जाते हैं, (१०) शिर पर सुवर्ण का छल्ला लगाया जाता है वह छल्ला ‘चषाल’ और यूप का कटा भाग ‘स्वरु’ कहाता है। यूप जड़ पदार्थ हैं उनमें (ऋ० २) मन्त्रों में कहे अज्ञान नाश करने वाली वाणी का बोलना (ऋ० ५) रत्नादि धारण करना (९) श्रवण करना (१०) सैकड़ों अंकुरों से फूटना आदि सम्भव नहीं है। इसलिये वह योजना गौण है । श्लेषवृत्ति से क्रियाकाण्ड की योजना समझनी चाहिये। श्लेषवृत्ति से यह सूक्त सूर्य की किरणों विद्वानों, प्राणों, वीर सैनिकों तथा वनस्पति नाम से आश्रयभूत राजा, सेनापति और गृहस्थ पुरुष का वन करता है। इति चतुर्थो वर्गः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ६, ९, १० त्रिष्टुप्। २, ३, ४, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् पङ्क्तिः। ११ भुरिक् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
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