ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
सखा॑यस्त्वा ववृमहे दे॒वं मर्ता॑स ऊ॒तये॑। अ॒पां नपा॑तं सु॒भगं॑ सु॒दीदि॑तिं सु॒प्रतू॑र्तिमने॒हस॑म्॥
स्वर सहित पद पाठसखा॑यः । त्वा॒ । व॒वृ॒म॒हे॒ । दे॒वम् । मर्ता॑सः । ऊ॒तये॑ । अ॒पाम् । नपा॑तम् । सु॒ऽभग॑म् । सु॒ऽदीदि॑तिम् । सु॒ऽप्रतू॑र्तिम् । अ॒ने॒हस॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सखायस्त्वा ववृमहे देवं मर्तास ऊतये। अपां नपातं सुभगं सुदीदितिं सुप्रतूर्तिमनेहसम्॥
स्वर रहित पद पाठसखायः। त्वा। ववृमहे। देवम्। मर्तासः। ऊतये। अपाम्। नपातम्। सुऽभगम्। सुऽदीदितिम्। सुऽप्रतूर्तिम्। अनेहसम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - अपांनपात् आत्मा के समान विद्वान् नायक
भावार्थ -
हम सब (सखायः) परस्पर मित्र, एक समान नाम, ख्याति वाले (मर्त्तासः) मरणधर्मा मनुष्य (ऊतये) अपनी रक्षा और ज्ञान,और मनोकामना पूर्ण करने के लिये (अपां नपातम्) प्राणों के बीच आत्मा के समान स्वयं नाश न होने वाले, प्राणों को बांधने वाले आत्मा के समान ही सब आप्त प्रजाजनों के प्रबन्धक (सुभगं) उत्तम ऐश्वर्यवान् (सुदीदितिम्) उत्तम ज्ञान-प्रकाश से युक्त, तेजस्वी, (सुप्रतूर्त्तिम्) सुखपूर्वक उत्तम रीति से पार पहुंचा देने और खूब शीघ्रता, वेग फुर्ती वाले, अनालसी, क्रियावान्, (अनेहसम्) अहिंसक, एवं निष्पाप, उपद्रवादि से रहित (त्वा) तुझको हे विद्वन् ! हे नायक ! हम लोग गुरु, नेता व रक्षक रूप से (ववृमहे) वरण करते हैं। (२) परमेश्वर भी, समस्त लोकों और प्रकृति के परमाणुओं तक का प्रबन्धक होने से ‘अपां नपात्’ है। वह उत्तम ऐश्वर्यवान्, ज्योतिर्मय, उत्तम तारक, निष्पाप है। उसको हम रक्षा, ज्ञान, तेज, हर्षादि के लिये वरण करें ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥अग्निदेवता॥ छन्दः- १, ४ बृहती। २, ५, ६, ७ निचृद् बृहती। ३, ८ विराड् बृहती। ९ स्वराट् पङ्क्ति॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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