ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
काय॑मानो व॒ना त्वं यन्मा॒तॄरज॑गन्न॒पः। न तत्ते॑ अग्ने प्र॒मृषे॑ नि॒वर्त॑नं॒ यद्दू॒रे सन्नि॒हाभ॑वः॥
स्वर सहित पद पाठकाय॑मानः । व॒ना । त्वम् । यत् । मा॒तॄः । अज॑गन् । अ॒पः । न । तत् । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । प्र॒ऽमृषे॑ । नि॒ऽवर्त॑नम् । यत् । दू॒रे । सन् । इ॒ह । अभ॑वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
कायमानो वना त्वं यन्मातॄरजगन्नपः। न तत्ते अग्ने प्रमृषे निवर्तनं यद्दूरे सन्निहाभवः॥
स्वर रहित पद पाठकायमानः। वना। त्वम्। यत्। मातॄः। अजगन्। अपः। न। तत्। ते। अग्ने। प्रऽमृषे। निऽवर्तनम्। यत्। दूरे। सन्। इह। अभवः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
विषय - जलों में विद्युत्, काष्ठों में अग्निवत् विद्वान् वीर नायक की स्थिति।
भावार्थ -
जिस प्रकार अग्नि (कायमानः) मानो चाहता हुआ, कान्तिमान् होकर (वना अजगन्) वनों में लगता और विद्युत् रूप से (अपः अजगन्) जलों को भी प्राप्त है। और उसका जिस प्रकार (निवर्त्तनं) बुझ जाना असह्य हो जाता है, अग्निस्वयं (दूरे सन् इह अभवः) दूर रहकर भी प्रकाश रूप से समीप हो जाता है उसी प्रकार हे (अझै) ज्ञानवन् ! विद्वन् ! (त्वं) तू (वना) सेवन करने योग्य ज्ञानों को (कायमानः) चाहता हुआ देता हुआ (यः) जो तू (मातॄः अपः) माता के समान स्नेहवान् वा उत्तम ज्ञानी आप्त पुरुषों को (अजगन्) प्राप्त हो, हे अग्ने ! विद्वन् ! एवं विनयशील ! (ते) तेरे (तत्) उस (निवर्त्तनम्) विद्याभ्यास के पथ से ‘निवर्त्तन’ लौट आने को मैं (न प्र मृषे) कभी सहन न करूं । (यत्) जो तू (दूरे सन्) दूर रहकर (इह अभवः) फिर यहां रहता अर्थात् विद्याभिलाषी, विद्यार्थी उत्तम ज्ञानों को चाहता हुआ मातृतुल्य विद्वान् गुरुओं को जाए, वह अधबीच में न लौटे, दूर रहकर बाद घर में आवे। (२) आचार्य के पक्ष में—वह (वना कायमानः) सेव्य ज्ञानों का उपदेश करता हुआ उत्तम ज्ञाता आप्त शिष्यों को, प्राणों को आत्मा के समान प्राप्त हो। गुरु का (निवर्त्तन) शिष्यों को अधर्म कार्यों से हटाना यह भी (तत् प्रमृषे) उत्तम तितिक्षा के लिये ही है। वह (दूरे सन्) दूर रहकर भी, देशान्तर में भी हो तो (इह अभवः) प्रेमवश हमारे पास ही रहे। (३) राष्ट्रनायक (वना) सेवनीय ऐश्वर्यो को चाहता हुआ अपने राजनिर्माता आप्त प्रजाजनों को प्राप्त करे। उसका प्रजा को कुपथ से हटाये रखना ही उत्तम तितिक्षा है। वह दूर रहकर प्रजा में दण्ड रूप से रहे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥अग्निदेवता॥ छन्दः- १, ४ बृहती। २, ५, ६, ७ निचृद् बृहती। ३, ८ विराड् बृहती। ९ स्वराट् पङ्क्ति॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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