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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 8/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वन॑स्पते श॒तव॑ल्शो॒ वि रो॑ह स॒हस्र॑वल्शा॒ वि व॒यं रु॑हेम। यं त्वाम॒यं स्वधि॑ति॒स्तेज॑मानः प्रणि॒नाय॑ मह॒ते सौभ॑गाय॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वन॑स्पते । श॒तऽव॑ल्शः । वि । रो॒ह॒ । स॒हस्र॑ऽवल्शाः । वि । व॒यम् । रु॒हे॒म॒ । यम् । त्वाम् । अ॒यम् । स्वऽधि॑तिः । तेज॑मानः । प्र॒ऽनि॒नाय॑ । म॒ह॒ते । सौभ॑गाय ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वनस्पते शतवल्शो वि रोह सहस्रवल्शा वि वयं रुहेम। यं त्वामयं स्वधितिस्तेजमानः प्रणिनाय महते सौभगाय॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वनस्पते। शतऽवल्शः। वि। रोह। सहस्रऽवल्शाः। वि। वयम्। रुहेम। यम्। त्वाम्। अयम्। स्वऽधितिः। तेजमानः। प्रऽनिनाय। महते। सौभगाय॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 8; मन्त्र » 11
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ ब्रह्मचर्य्यानुष्ठानेन किं भवतीत्याह।

    अन्वयः

    हे वनस्पते यथा शतवल्शो वंशादिवृक्षविशेषो वर्द्धते तथा त्वं विरोह सुखं प्रणिनाय च यथा सहस्रवल्शा दूर्वादयो वर्द्धन्ते तथैव वयं विरुहेम यथाऽयं तेजमानः स्वधितिर्विद्युन्महते सौभगाय यन्त्वां वर्धयति तं वयमपि वर्धयेम ॥११॥

    पदार्थः

    (वनस्पते) वनस्पतिरिव वर्त्तमान (शतवल्शः) शतानि वल्शा अंकुरा यस्य सः (वि) विशेषेण (रोह) वर्द्धयस्व (सहस्रवल्शाः) सहस्राङ्कुरा वनस्पतय इवाङ्गोपाङ्गैः सह वर्त्तमानाः (वि) (वयम्) (रुहेम) वर्द्धेमहि (यम्) (त्वाम्) (अयम्) (स्वधितिः) वज्रः (तेजमानः) तीक्ष्णीकृतः (प्रणिनाय) प्रकर्षेण प्रापय (महते) (सौभगाय) शोभनस्य धनस्य भावाय ॥११॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या ब्रह्मचर्य्यविद्यासुशिक्षाधर्मपुरुषार्थैर्युक्ताः सन्तः कार्य्यसिद्धये प्रयतन्ते ते वंशादयो वृक्षाइव सर्वतो वर्द्धन्ते तथा सुतीक्ष्णैः शस्त्रैः शत्रून् सञ्जित्याऽजातशत्रवः सन्ति तान् विद्युन्मेघमिव शत्रुदलानि दग्धुं समर्था भूत्वा महदैश्वर्यं जनयेयुरिति ॥११॥ अत्र विद्वच्छ्रोत्रियब्रह्मचारिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इत्यष्टमं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ब्रह्मचर्य्य के अनुष्ठान से क्या होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (वनस्पते) वनस्पति के समान वर्त्तमान परोपकारी सज्जन ! जैसे (शतवल्शः) सैकड़ों अङ्कुरवाला बाँस आदि वृक्ष विशेष बढ़ता है वैसे आप (वि, रोह) वृद्धि को प्राप्त हूजिये और सुख को (प्रणिनाय) उत्तम प्रकार से प्राप्त कीजिये। जैसे (सहस्रवल्शाः) हजारों अङ्कुरवाले वनस्पतियों के तुल्य साङ्गोपाङ्ग वर्त्तमान दूर्वा आदि बढ़ते हैं वैसे ही (वयम्) हम लोग (वि, रोह) विशेष कर बढ़ें। जैसे (अयम्) यह (तेजमानः) तीक्ष्ण किया (स्वधितिः) वज्ररूप विद्युत् अग्नि (महते) बड़े (सौभगाय) सुन्दर धन होने के लिये (यम्) जिस (त्वाम्) आपको बढ़ाता है, वैसे हम लोग भी बढ़ावे ॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र मे वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य्य, विद्या, सुशिक्षा, धर्म और पुरुषार्थों से युक्त हुए कार्य्यसिद्धि के अर्थ प्रयत्न करते हैं, वे बाँस आदि वृक्षों के तुल्य सब ओर से बढ़ते हैं। जैसे सुन्दर तीक्ष्ण शस्त्रों से शत्रुओं को जीत के अजातशत्रु होते हैं, उनको जैसे विद्युत् मेघ को वैसे शत्रु दलों को जलाने को समर्थ हो के महान् ऐश्वर्य्य को उत्पन्न करें ॥११॥ इस सूक्त में विद्वान् वेदपाठी और ब्रह्मचारी के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥ यह आठवाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    शतवल्श विरोहण

    पदार्थ

    [१] (वनस्पते) = हे ज्ञान-रश्मियों के स्वामिन् ! (यं त्वाम्) = जिस तुझको (अयं स्वधितिः) = यह आत्मतत्त्व का धारण करनेवाला, (तेजमान:) = तेजस्वी होता हुआ (महते सौभगाय) = महान् सौभाग्य के लिये (प्रणिनाय) = प्राप्त कराता है वह तू (शतवल्श:) = सैकड़ों शाखाओंवाला होकर (विरोह) = विशेषरूप से उन्नत हो, अर्थात् आत्मतत्त्व का धारण करनेवाले तेजस्वी पुरुषों के सम्पर्क में महान् उत्कृष्ट ज्ञान को [भग-ज्ञान] प्राप्त कर । ज्ञानरश्मियोंवाला बनकर सैंकड़ों प्रकार से जीवन को उन्नत करनेवाला हो । [२] (वयम्) = तेरे सम्पर्क में आनेवाले हम भी (सहस्रवल्शा:) = हजारों शाखाओंवाले होते हुए (विरुहेम) = विशेषरूप से उन्नत हों। हमें ज्ञान देनेवाले आचार्य अपने ब्रह्मनिष्ठ तेजस्वी आचार्यों से ज्ञान प्राप्त करके उन्नत हों। इनसे ज्ञान प्राप्त करके हम भी सब दिशाओं में उन्नति कर सकें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे आचार्य, अपने आत्मनिष्ठ तेजस्वी आचार्यों से ज्ञान प्राप्त करें और हमें उत्कृष्ट ज्ञान को देनेवाले हों। सूक्त का मुख्य भाव यह है कि हम ज्ञानियों के सम्पर्क में उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त करके उन्नत हों। हमें प्रभुप्राप्ति का सौभाग्य प्राप्त हो । 'हम प्रभु के सखा बनें' इन शब्दों से अगले सूक्त का आरम्भ होता है

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    विषय

    वटवत् राजा या आचार्य का शाखा प्रशाखाओं में बढ़ना। पक्षान्तर में सूक्त की यज्ञ-यूपों में योजना। श्लेष से किरणों, विद्वानों प्राणों वीर सैनिकों की ओर योजना का निर्देश।

    भावार्थ

    हे (वनस्पते) महावृक्ष के समान याचनाशील और ऐश्वर्यों के सेवन करने वाले जनो और भोग्य ऐश्वर्यों के पालक राजन् ! शिष्यों के पालक विद्वन् ! सैन्य दलों के पालक सेनापते ! तुझको (स्वधितिः) अपने बल से धारण करने योग्य उत्तम शस्त्रबल और शास्त्रबल (तेजमानः) तीक्ष्ण करता हुआ (महते सौभगाय) बड़े भारी सौभाग्य ऐश्वर्य के प्राप्त करने के लिये (प्र-निनाय) उत्कर्ष युक्त पद पर पहुंचाता है। शस्त्र से काटा जा कर पुनः सहस्रों शाखाओं से फूटने वाला वट आदि वनस्पति जिस प्रकार (शतवल्शः सहस्रवल्शः) सैकड़ों और सहस्रों शाखाओं और अंकुरों से युक्त होकर वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार तू (शतवल्शः) सैकड़ों शाखाओं और (सहस्रवलशः) हज़ारों अंग प्रत्यंग, एवं पुत्र पौत्रादि रूप शाखाओं और अंकुरों से युक्त होकर (विरोह) विविध प्रकार से उन्नत हो। और (वयम्) हम भी (विरुहेम ) विविध प्रकार से वनस्पतियों के समान ही उत्पन्न होकर वृद्धि को प्राप्त हों। यज्ञ में यह सूक्त उपचार से यज्ञवेदी में स्थित यूपों के वर्णन में लगाया जाता है। (१) वृक्ष के काष्ठ से बना हुआ यूप वनस्पति है, उसको ऋत्विज् लोग घृत से चुपड़ते हैं। वेदी पर स्थित होता है। (३) माप २ कर बनाया जाता है (४) वस्त्र से सजाया जाता है । (६) शस्त्र से है काटा जाता है, (९) बहुत से यूप एक पंक्ति में खड़े किये जाते हैं, (१०) शिर पर सुवर्ण का छल्ला लगाया जाता है वह छल्ला ‘चषाल’ और यूप का कटा भाग ‘स्वरु’ कहाता है। यूप जड़ पदार्थ हैं उनमें (ऋ० २) मन्त्रों में कहे अज्ञान नाश करने वाली वाणी का बोलना (ऋ० ५) रत्नादि धारण करना (९) श्रवण करना (१०) सैकड़ों अंकुरों से फूटना आदि सम्भव नहीं है। इसलिये वह योजना गौण है । श्लेषवृत्ति से क्रियाकाण्ड की योजना समझनी चाहिये। श्लेषवृत्ति से यह सूक्त सूर्य की किरणों विद्वानों, प्राणों, वीर सैनिकों तथा वनस्पति नाम से आश्रयभूत राजा, सेनापति और गृहस्थ पुरुष का वन करता है। इति चतुर्थो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ६, ९, १० त्रिष्टुप्। २, ३, ४, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् पङ्क्तिः। ११ भुरिक् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे ब्रह्मचर्य, विद्या, सुशिक्षा, धर्म व पुरुषार्थयुक्त असून कार्यसिद्धीसाठी प्रयत्न करतात ते बांबू इ. वनस्पतीप्रमाणे वाढतात. जसे सुंदर तीक्ष्ण शस्त्रांनी शत्रूंना जिंकून अजातशत्रू होता येते, जशी विद्युत मेघांना तसे शत्रूंना दग्ध करण्यास जे समर्थ असतात ते महान ऐश्वर्य उत्पन्न करतात. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Vanaspati, lord of sunbeams and greenery of the earth, yajnic scholar, generous giver, just as a tree grows into a hundred shoots and branches and then to a thousand, so may you grow a hundred-fold, and let us grow too into a thousand shoots and branches. And may this divine thunderbolt of fire and lightning power help you to rise and grow manifold in grandeur and all round prosperity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The significance and benefits of the observance of Brahmacharya are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person! you are like a big tree. As a tree grows with hundreds of sprouts and branches, in the same manner, may you also grow and lead others in happiness. As plant of grass grows with thousands of sprouts' may we thus grow abundantly. The energy electricity makes you grow for significant progress and prosperity. So let us also increase its use for various purposes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who always endeavor for the accomplishment of their works and are blessed with Brahmacharya (continence), Vidya (wisdom), good education and industriousness, they grow full stature like the bamboos and other trees. Having conquered their enemies with sharp weapons, such men vanish their foes. Let them become prosperous by annihilating their enemies like the lightning destroys the clouds.

    Foot Notes

    ( वनस्पते ) वनस्पतिरिव वर्त्तमान। = Behaving like a big tree (giving shelter to others and benevolent). (शतवल्श:) शतानि वल्शा अंकुरा यस्य सः । = Having hundreds of sprouts. (स्वधितिः) वज्रः । स्वधितिरीति वज्रानाम (N.G. 2, 20 ) = A thunderbolt-like sharp weapon. (प्रणिनाय) प्रकर्षेण प्रापय = Lead to much happiness.

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