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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 8/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यान्वो॒ नरो॑ देव॒यन्तो॑ निमि॒म्युर्वन॑स्पते॒ स्वधि॑तिर्वा त॒तक्ष॑। ते दे॒वासः॒ स्वर॑वस्तस्थि॒वांसः॑ प्र॒जाव॑द॒स्मे दि॑धिषन्तु॒ रत्न॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यान् । वः॒ । नरः॑ । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । नि॒ऽमि॒म्युः । वन॑स्पते । स्वऽधि॑तिः । वा॒ । त॒तक्ष॑ । ते । दे॒वासः॑ । स्वर॑वः । त॒स्थि॒ऽवांसः॑ । प्र॒जाऽव॑त् । अ॒स्मे इति॑ । दि॒धि॒ष॒न्तु॒ । रत्न॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यान्वो नरो देवयन्तो निमिम्युर्वनस्पते स्वधितिर्वा ततक्ष। ते देवासः स्वरवस्तस्थिवांसः प्रजावदस्मे दिधिषन्तु रत्नम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यान्। वः। नरः। देवऽयन्तः। निऽमिम्युः। वनस्पते। स्वऽधितिः। वा। ततक्ष। ते। देवासः। स्वरवः। तस्थिऽवांसः। प्रजाऽवत्। अस्मे इति। दिधिषन्तु। रत्नम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 8; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैः के ग्राह्यास्त्याज्या वेत्याह।

    अन्वयः

    हे नरो यान्वो देवयन्तो निमिम्युस्ते स्वरवस्तस्थिवांसो देवासो भवन्तोऽस्मे प्रजावद्रत्नं दिधिषन्तु। वा हे वनस्पते यथा स्वधितिर्मेघं ततक्ष तथा त्वं दुष्टतां तक्ष ॥६॥

    पदार्थः

    (यान्) (वः) युष्मान् (नरः) नायकाः (देवयन्तः) कामयमानाः (निमिम्युः) नितरां मिनुयुः (वनस्पते) वनानां पालक (स्वधितिः) वज्रः (वा) (ततक्ष) तक्षति (ते) (देवासः) विद्वांसः (स्वरवः) स्वकीयो रवो विद्याप्रज्ञापकः शब्दो येषान्ते (तस्थिवांसः) स्थिरप्रज्ञाः (प्रजावत्) प्रजा विद्यन्ते यस्मिँस्तत् (अस्मे) अस्मभ्यम् (दिधिषन्तु) उपदिशन्तु (रत्नम्) धनम्। रत्नमिति धनना०। निघं०२। १० ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या येषां सङ्गेनान्ये सभ्या विद्वांसः स्युस्तेषामेव सङ्गं यूयमपि कुरुत येषां समागमेन दुर्व्यसनानि वर्धेरँस्तान् सर्वे त्यजन्तु ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों को किनका ग्रहण वा त्याग करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (नरः) नायक लोगो ! (यान्, वः) जिन तुमको (देवयन्तः) कामना करते हुए जन (निमिम्युः) निरन्तर मान करें (ते) वे (स्वरवः) अपने विद्याबोधक शब्दों से युक्त (तस्थिवांसः) स्थिर बुद्धिवाले (देवासः) आप विद्वान् लोग (अस्मे) हमारे (प्रजावत्) प्रजावान् (रत्नम्) धन का (दिधिषन्तु) उपदेश करें। (वा) अथवा हे (वनस्पते) वनों के रक्षक पुरुष ! जैसे (स्वधितिः) वज्र मेघ को (ततक्ष) काटता है वैसे आप दुष्टता को काटो ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिनके सङ्ग से अन्य जन सभ्य विद्वान् हों, उन्हीं का सङ्ग तुम लोग भी करो। जिनके समागम से दुर्व्यसन बढ़े, उनको सब लोग त्याग देवें ॥६॥

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    विषय

    प्रजावत् रत्नम्

    पदार्थ

    [१] हे (वनस्पते) = ज्ञानरश्मियों के स्वामिन् प्रभो! (यान्) = जिनको (वः नरः) = ['नृ' का बहुवचन] आपके मनुष्य, (देवयन्तः) = सदा दिव्यगुणों की कामनावाले (निमिम्युः) = निश्चय से बनाते हैं, (वा) = अथवा (स्वधितिः) = [स्व+धितिः] आत्मतत्त्व का धारण (ततक्ष) = हमारा निर्माण करता है ते वे सब (देवास:) = देववृत्ति के बन पाते हैं, (स्वरवः) = सदा प्रभुस्तवन करनेवाले होते हैं तथा (तस्थिवांसः) = स्थिरवृत्तिवाले बनते हैं। मनुष्य के जीवन का निर्माण 'माता, पिता, आचार्य' आदि देवों से होता है। 'मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद'। इनद्वारा किए जानेवाले शिक्षण के साथ यदि आत्मतत्त्व - धारण का अभ्यास भी हो, अर्थात् कुछ देर के लिये आत्मचिन्तन का अभ्यास भी किया जाए, तब तो जीवन का बहुत ही सुन्दर परिष्कार हो जाता है। इस परिष्कार के होने पर [क] मनुष्य कुछ दैवी-वृत्तिवाला बनता है, [ख] प्रभुस्तवन की ओर झुकाववाला होता है और [ग] स्थिरवृत्तिवाला बनता है, विषयों में उसका चित्त भटकता नहीं रहता । [२] (अस्मे) = ऐसा बननेवाले हमारे लिए देव (प्रजावत् रत्नम्) = उत्तम विकासवाले रमणीय धन को (दिधिषन्तु) = धारण करें-हमें इस धन को प्राप्त कराएँ । 'प्रजावत्' का अर्थ 'उत्तम सन्तानवाला' भी यहाँ ग्राह्य ही है । हमें धन भी प्राप्त हो, वह धन उत्तम सन्तानोंवाला हो। उस धन द्वारा हम सन्तानों का उत्तम शिक्षण करने-कराने में समर्थ हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ-देववृत्ति के माता, पिता, आचार्य हमारे जीवनों का सुन्दर निर्माण करें। 'आत्मचिन्तन' से हमारा जीवन परिष्कृत बने। हमें उत्तम सन्तान के साथ रमणीय धन प्राप्त हो ।

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    विषय

    कुठारवत् विद्वान् का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! (यान् वः) जिन आप लोगों को (देवयन्तः) देव, अर्थात् कामनाशील, प्रिय पुरुषों के समान आचरण करने वाले या विजयेच्छुक पुरुषों को चाहने वाले (नरः) नायकजन और विद्याभिलाषी शिष्यों के इच्छुक गुरुजन (नि मिम्युः) अच्छी प्रकार से के उपदेश करते और (स्वधितिः वा) मेघों को वज्र के समान, काष्ठों को कुठार के समान, हे (वनस्पते) सर्वाश्रय ! तेजस्विन् सैन्यदलपते ! तू जिनको (ततक्ष) गढ़ता, बनाता और तैयार करता है (ते) वे (देवासः) विद्वान् और वीर पुरुष (स्वरवः) सूर्य के समान तेजस्वी और स्वयं विद्योपदेशों से युक्त और (तस्थिवांसः) स्थिर बुद्धि होकर (अस्मे) हमारे कल्याण के लिये (प्रजावत्) प्रजा के समान या प्रजा से युक्त (रत्नम्) रमणीय उत्तम धन (दिधिषन्तु) धारण करें और दें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ६, ९, १० त्रिष्टुप्। २, ३, ४, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् पङ्क्तिः। ११ भुरिक् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! ज्यांच्या संगतीने इतर लोक सभ्य, विद्वान होतात त्यांचीच संगती तुम्ही धरा. ज्यांच्या संगतीने दुर्व्यसन वाढतात त्यांचा सर्व लोकांनी त्याग करावा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O leading lights of society, those pious people in pursuit of divine virtue who love you, honour and value you, and O Vanaspati, lord of light, those whom the shaping power of Divinity has refined with knowledge and culture, may all those magnificent scholars, self-luminous in their own words, balanced and firm in judgement and wisdom, blest with people and progeny, bear and bring the jewels of life for us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The demarcating line between acceptable and non-acceptable persons has been denoted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O leaders ! the men desiring the welfare of all honor you. Your words throw light on various sciences, and are of steadfast intellect. Teach us about the wealth which brings noble progeny. O protector of the forests! remove all wickedness like the lightning pierces through the cloud.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O persons, you take company of those, who make others civilized and cultured, and give up the same of those, who inculcate vices in them.

    Foot Notes

    (स्वरवः) स्वकीयो रवो विज्ञाप्रज्ञापक: शब्दो येषन्ति। = Those who utter words throwing light on various sciences. (तस्थिवांसः ) स्थिरप्रज्ञाः । = Men of the steadfast intellect. (दिधिषन्तु) उपदिशन्तु = May teach. (रत्नम् ) धनम् । रत्नमिति धननाम ( N. G. 2, 10) = Wealth.

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