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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 8/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - स्वराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ये वृ॒क्णासो॒ अधि॒ क्षमि॒ निमि॑तासो य॒तस्रु॑चः। ते नो॑ व्यन्तु॒ वार्यं॑ देव॒त्रा क्षे॑त्र॒साध॑सः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । वृ॒क्णासः॑ । अधि॑ । क्षमि॑ । निऽमि॑तासः । य॒तऽस्रु॑चः । ते । नः॒ । व्य॒न्तु॒ । वार्य॑म् । दे॒व॒ऽत्रा । क्षे॒त्र॒ऽसाध॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये वृक्णासो अधि क्षमि निमितासो यतस्रुचः। ते नो व्यन्तु वार्यं देवत्रा क्षेत्रसाधसः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। वृक्णासः। अधि। क्षमि। निऽमितासः। यतऽस्रुचः। ते। नः। व्यन्तु। वार्यम्। देवऽत्रा। क्षेत्रऽसाधसः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 8; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्यया किं भवतीत्याह।

    अन्वयः

    ये वृक्णासो निमितासो यतस्रुचः क्षम्यधि वर्त्तन्ते ते देवत्रा क्षेत्रसाधसो नो वार्य्यं व्यन्तु ॥७॥

    पदार्थः

    (ये) (वृक्णासः) छिन्नाविद्याः (अधि) (क्षमि) पृथिव्याम् (निमितासः) नित्यमितज्ञानाः (यतस्रुचः) यता स्रुग् यज्ञसाधनं यैस्ते ऋत्विजः (ते) (नः) अस्माकम् (व्यन्तु) प्राप्नुवन्तु (वार्य्यम्) वर्तुमर्हं विज्ञानम् (देवत्रा) देवेषु विद्वत्सु (क्षेत्रसाधसः) ये क्षेत्राणि साध्नुवन्ति ते ॥७॥

    भावार्थः

    यथा कुठारेण छिन्ना वृक्षा न रोहन्ति तथैव विद्यया क्षीणा अविद्या न वर्द्धते ॥७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब विद्या से क्या होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    (ये) जो (वृक्णासः) अविद्या से पृथक् हुए (निमितासः) सदैव सत्य-सत्य ज्ञानवाले (यतस्रुचः) जिन्होंने यज्ञ साधन नियत किया और (क्षमि) (अधि) पृथिवी पर वर्त्तमान हैं (ते) वे (देवत्रा) विद्वानों में (क्षेत्रसाधसः) खेतों को साधनेवाले (नः) हमारे (वार्य्यम्) स्वीकार के योग्य ज्ञान को (व्यन्तु) प्राप्त हों ॥७॥

    भावार्थ

    जैसे कुल्हाड़े से काटे हुए वृक्ष फिर नहीं जमते, वैसे ही विद्या से नष्ट हुई अविद्या नहीं बढ़ती ॥७॥

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    विषय

    दान के अधिकारी

    शब्दार्थ

    (अधि‌ क्षमि) पृथिवी पर, संसार में (देवता) ज्ञानी और दानशील मनुष्यों के मध्य में (ये) जो (देवत्रा) छिन्न, कटे हुए, अनासक्त हैं, जो (निमितास:) अत्यन्त न्यून आवश्यकताओंवाले हैं, जो (यतस्रुच:) यतस्रुच हैं, जिनका चम्मच सदा चलता रहता है, जो (क्षेत्रसाधसः) क्षेत्र-साधक हैं, (ते) वे लोग (न:) हमारे (वार्यम्) वरणीय धन को, दान को (व्यन्तु) प्राप्त करें ।

    भावार्थ

    वेद के अनुसार मनुष्य को सैकड़ों हाथों से कमाना चाहिए और सहस्रों हाथों से दान करना चाहिए । परन्तु दान किसे देना चाहिए ? दान के वास्तविक अधिकारी कौन है ? मन्त्र में दान के अधिकारियों का ही वर्णन है । इस पृथिवी पर दान के अधिकारी वे हैं - १. जो अनासक्त हैं । जो संसार में रहते हुए भी इसमें लिप्त नही होते । ऐसे अनासक्त व्यक्तियों को दिया दान लोकोपकार में ही लगेगा । २. दान उन्हें देना चाहिए जिनकी अपनी आवश्यकताएँ बहुत न्यून हों । ऐसे व्यक्तियों को दिये हुए दान का अपव्यय नहीं होगा । ३. दान उनको देना चाहिये जिनका चम्मच सदा चलता रहता हो । जो दान को लेकर उसे आवश्यकतावालों को देते रहते हों, जो धन लेकर दीन, दरिद्रों और दुःखियों में बाँट देते हों । ४. दान उन्हें देना चाहिए जिन्होंने अन्न के, विद्या के, धर्म-प्रचार के, स्वास्थ्य सम्पादन के क्षेत्र खोल रक्खे हों ।

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    विषय

    देवत्रा वार्यम्

    पदार्थ

    [१] (ये) = जो (वृक्णास:) = [वृज्] पाप का वर्जन करनेवाले हैं अथवा जो [torn away] पाप से पृथक् हो गए हैं। (अधि क्षमि) = इस शरीररूप पृथिवी में (निमितासः) = प्रत्येक क्रिया बड़े परिमित रूप में करनेवाले हैं-खान-पान, सोना-जागना, उठना-बैठना ये सभी क्रियाएँ इनकी बड़ी नियमित रूप से चलती हैं । (यतस्स्रुचः) = जिन्होंने चम्मच हाथ में लिया हुआ है, अर्थात् जो सदा यज्ञशील हैं [स्रुच् वाक् श० ६ | ३ | १।८] अथवा संयत वाणीवाले हैं। (क्षेत्रसाधसः) = जो शरीररूप क्षेत्र बड़ा ठीक सिद्ध करनेवाले हैं। (ते) = वे (न:) = हमारे लिए (देवत्रा) = देवों में जो भी (वार्यम्) = वरणीय वस्तु है, उसे (व्यन्तु) = प्राप्त कराएँ [गमयन्तु] । [२] प्रचारकार्य व नरनिर्माण कार्य में लगे हुए लोगों को [क] पाप से दूर होना चाहिए, अन्यथा वे औरों को क्या सुपथ पर ला सकेंगे ? [ख] इनकी सब क्रियाएँ नपी- तुली होनी चाहिए, ऐसे ही व्यक्ति औरों को प्रभावित कर पाते हैं। [ग] ये यज्ञशील व संयतवाक् हों। बहुत बोलनेवाले का भी प्रभाव नहीं पड़ता। [३] इनका शरीर स्वस्थ होना चाहिए। अस्वस्थ व्यक्ति चाहता हुए भी औरों का हित नहीं कर पाता। ये लोग प्रचारकार्य को करते हुए ‘सूर्य से प्रकाश को, वायु से क्रियाशीलता को तथा अग्नि से दोषदहन शक्ति को ग्रहण करने का लोगों को उपदेश दें। देवों के मार्ग पर चलने का भाव यही है कि प्रत्येक देव से वरणीय गुण को ग्रहण करते हुए हम अपने जीवन को दिव्यजीवन बनाने का यत्न करें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- निष्पाप, संयमी, यज्ञशील व स्वस्थ पुरुष हमें अपने उपदेशों से दिव्यगुणों को प्राप्त करने के लिये प्रेरित करें ।

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    विषय

    कृषक, वा क्षत्रियवत् विद्वान्।

    भावार्थ

    (ये) जो (वृक्णासः) अविद्या से उत्पन्न समस्त बन्धनों को काट देनेहारे, (यत-स्रुचः) प्राणों और इन्द्रियों का संयम करने वाले, (अधि क्षमि) क्षमा, सहनशीलता में रहकर (निमितासः) स्थिर रूप से ज्ञानवान् या खूब परिमित भाषण करने वाले (क्षेत्र-साधसः) देह पर वश करने में कुशल हैं (देवत्रा) ज्ञानी और दानशील पुरुषों के बीच में वे (नः) हमारे (वार्यं) वरण करने योग्य ज्ञान और ऐश्वर्य को (व्यन्तु) प्राप्त करें, प्रदान करें । (२) इसी प्रकार हमारे बीच में (क्षेत्रसाधसः) क्षेत्र अर्थात् युद्धक्षेत्र और अन्नक्षेत्रों के साधन उत्पन्न करने वाले वीर और वैश्य कृषक (वृक्णासः) शत्रुओं और कण्टकों का छेदन करने हारे (अधि क्षमि यतस्रुचः) भूमि पर रक्त बहाने वाले नदियों, सेनाओं और जल बहाने वाली धाराओं को नियम में रखने वाले (निमितासः) अपने राज्यों और क्षेत्रों को मापने वाले होकर (नः वार्यं) हमारे उत्तम ऐधर्य और अन्न को (व्यन्तु) प्राप्त करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ६, ९, १० त्रिष्टुप्। २, ३, ४, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् पङ्क्तिः। ११ भुरिक् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे कुऱ्हाडीने कापलेले वृक्ष पुन्हा जोडता येत नाहीत तसेच विद्येने नष्ट झालेली अविद्या पुन्हा वाढत नाही. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Those who are exceptionally distinguished on the earth, masters of eternal and measured knowledge, devoted yajnics with the holy ladle upraised and successful in any field of knowledge and action — may those lovers of Divinity achieve and bring the most cherished wealth and values of life for us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of knowledge are described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May the learned persons, who have thrown away their ignorance, who have acquired true knowledge, who perform Yajnas with ladles and requisite other implements, who cultivate the fields ( of various sciences) may give us acceptable knowledge.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Ignorance cut down with true knowledge does not grow, like the tree cut down with axes.

    Foot Notes

    (वृक्णामः) छिन्ना विद्याः । = Who have cut down (removed) their ignorance. (वाय्यंम् ) वत्तं महं विज्ञानम् = Acceptable knowledge.

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