ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 8/ मन्त्र 10
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
शृङ्गा॑णी॒वेच्छृ॒ङ्गिणां॒ सं द॑दृश्रे च॒षाल॑वन्तः॒ स्वर॑वः पृथि॒व्याम्। वा॒घद्भि॑र्वा विह॒वे श्रोष॑माणा अ॒स्माँ अ॑वन्तु पृत॒नाज्ये॑षु॥
स्वर सहित पद पाठशृङ्गा॑णिऽइव । शृ॒ङ्गिणा॒म् । सम् । द॒दृ॒श्रे॒ । च॒षाल॑ऽवन्तः । स्वर॑वः । पृ॒थि॒व्याम् । वा॒घत्ऽभिः॑ । वा॒ । वि॒ऽह॒वे । श्रोष॑माणाः । अ॒स्मान् । अ॒व॒न्तु॒ । पृ॒त॒नाज्ये॑षु ॥
स्वर रहित मन्त्र
शृङ्गाणीवेच्छृङ्गिणां सं ददृश्रे चषालवन्तः स्वरवः पृथिव्याम्। वाघद्भिर्वा विहवे श्रोषमाणा अस्माँ अवन्तु पृतनाज्येषु॥
स्वर रहित पद पाठशृङ्गाणिऽइव। शृङ्गिणाम्। सम्। ददृश्रे। चषालऽवन्तः। स्वरवः। पृथिव्याम्। वाघत्ऽभिः। वा। विऽहवे। श्रोषमाणाः। अस्मान्। अवन्तु। पृतनाज्येषु॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 8; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः के विद्वांसः सत्कारमाप्नुवन्तीत्याह।
अन्वयः
ये चषालवन्तः स्वरवो विहवे श्रोषमाणा वाघद्भिः सह वर्त्तमानाः पृथिव्यां शृङ्गिणां शृङ्गाणीव संददृश्रे त इत्पृतनाज्येषु वेतरेषु व्यवहारेष्वस्मानवन्तु ॥१०॥
पदार्थः
(शृङ्गाणीव) (इत्) एव (शृङ्गिणाम्) महिषादीनाम् (सम्) सम्यक् (ददृश्रे) दृश्यन्ते (चषालवन्तः) बहवश्चषाला भोगा विद्यन्ते येषान्ते (स्वरवः) प्रशंसकाः (पृथिव्याम्) भूमौ (वाघद्भिः) ऋत्विग्भिः (वा) पक्षान्तरे (विहवे) विशेषेण ह्वयति शब्दयति यस्मिँस्तस्मिन् (श्रोषमाणाः) शृण्वन्तः। अत्र वाच्छन्दसीति द्वित्वाभावः। (अस्मान्) (अवन्तु) (पृतनाज्येषु) सङ्ग्रामेषु ॥१०॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये बहुश्रुता विद्वांसः स्वात्मवत्सर्वान् पालयन्ति ते सुकीर्त्त्योत्तमाङ्गे मस्तके संस्थितानि पशूनां शृङ्गाणीव योग्यपदवीं प्राप्य संसारे स्तूयमानाः सर्वैः सत्क्रियन्ते ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कौन विद्वान् जन सत्कार पाते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो (चषालवन्तः) बहुत भोगोंवाले (स्वरवः) प्रशंसक लोग (विश्वे) विशेषकर जहाँ पठन-पाठनादि का शब्द करते उस स्थान में (श्रोषमाणाः) सुनते हुए (वाघद्भिः) ऋत्विजों के साथ वर्त्तमान (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (शृङ्गिणाम्) भैंसा आदि के (शृङ्गाणीव) सींगों के तुल्य (सं ददृश्रे) सम्यक् दीख पडते हैं वे (इत्) ही (पृतनाज्येषु) संग्रामों (वा) अथवा अन्य व्यवहारों में (अस्मान्) हमको (अवन्तु) रक्षित करें ॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो बहुश्रुत विद्वान् लोग अपने आत्मा के तुल्य सबकी रक्षा करते हैं, वे उत्तम कीर्ति से श्रेष्ठाङ्ग मस्तक में वर्त्तमान सब पशुओं के सींगों के तुल्य उत्तम पद को प्राप्त होकर संसार में स्तुति किये हुए के सत्कार को प्राप्त होते हैं ॥१०॥
विषय
आदर्श प्रचारक
पदार्थ
[१] (स्वरवः) = ये प्रभु का उपासन करनेवाले लोग (पृथिव्याम्) = इस पृथिवी पर (चषालवन्त:) = [चषाल - bee hive] मधु के छत्तेवाले सं ददृशे दिखते हैं। इनके मुख से सदा मधुर शब्द ही उच्चरित होते हैं। ये लोग (इत्) = निश्चय से (शृंगिणाम्) = सींगवाले पशुओं के (शृंगाणि इव) = सींगों के समान होते हैं। जैसे सींग अवाञ्छनीय रुकावट को दूर करनेवाले होते हैं, इसी प्रकार ये भी लोक-विध्वंसक तत्त्वों को दूर करके लोकरक्षण करनेवाले होते हैं । [२] ये उपासक विहवे यज्ञों में [विशेषेण हूयन्ते अज] वाघद्भिः ज्ञान का वहन करनेवाले विद्वानों से (श्रोषमाणाः) = ज्ञान का श्रवण करते हुए और इस प्रकार अपने ज्ञानों को निरन्तर बढ़ाते हुए अस्मान्- हमें पृतनाज्येषु संग्रामों में अवन्तु रक्षित करें । इनके उपदेशों से उत्कृष्ट प्रेरणाओं को प्राप्त करते हुए हम काम-क्रोध आदि को जीतनेवाले बनें, कभी इनसे अभिभूत न हों।
भावार्थ
भावार्थ- आदर्श प्रचारक लोकविध्वंस एक तत्त्वों को दूर करते हुए, मधुर शब्दों को बोलते हुए प्रभु के उपासक होते हैं। ये ज्ञानियों से और अधिक ज्ञान का श्रवण करते हुए, अपने उपदेशों से, हमें काम-क्रोध आदि को अभिभूत करने में प्रेरित व सशक्त करते हैं।
विषय
यज्ञ में यूपों के समान विद्वान् वीरजन।
भावार्थ
विद्वान् और वीरजन (पृथिव्याम्) इस पृथ्वी पर (चषालवन्तः) भोग करने योग्य नाना प्रकार के ऐश्वर्यों से सम्पन्न और (स्वरवः) शत्रुओं को तपाने वाले और उत्तम वचन कहने वाले हों और वे (चषालवन्तः स्वरवः) सुन्दर छल्लों से युक्त यज्ञ के यूपों के समान (शृङ्गिणां) सींग वाले बैल आदि पशुओं के या उच्च पर्वतों के (शृङ्गाणि-इव) ऊंचे सींगों या शिखरों के समान ऊंचे स्थान पर स्थित होकर या आगे बढ़कर विपक्षियों का नाश करने वाले होकर (संददृश्रे) अच्छी प्रकार दीखें। वे (वावद्भिः) अपने पूज्य विद्वानों द्वारा (विहवे) विविध उपदेश प्रदान से युक्त स्वाध्यायकाल में वा विशेष रूप से आह्वान करने के संग्रामकाल में (श्रोषमाणाः) उत्तम उपदेश और आज्ञा व ज्ञान श्रवण करते हुए (अस्मान्) हमें (पृतनाज्येषु) संग्रामों में (अवन्तु) रक्षा करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ६, ९, १० त्रिष्टुप्। २, ३, ४, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् पङ्क्तिः। ११ भुरिक् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. बहुश्रुत विद्वान लोक स्वतःप्रमाणे सर्वांचे पालन व रक्षण करतात, ते उत्तम कीर्तीने मस्तकावरील शिंगाप्रमाणे उत्तम पद प्राप्त करतात, त्यांची जगात प्रशंसा होते व सत्कार होतो. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Like the horns of animals they look good and beautiful, protective. Enjoying many good things of life, hearing hymns of adoration, performing yajna with singing priests in the assembly, may holy men and distinguished scholars protect us in the battles of life on the earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Nature of the learned persons that command respect is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May those enlightened persons who have many enjoyable good objects, who are admirers of the virtuous discourses in assemblies, who appear on the earth along with wise priests like the horns of the horned cattle, protect us in the battles and other dealings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Having acquired much knowledge from great scholars, the learned persons who protect all like their own ones. They gain high position in society like the horns in the bodies of animals and are honored by all and praised on account of their virtues.
Foot Notes
(चषालवन्तः) बहवश्चषाला भोगा विद्यन्ते येषान्ते चपाल: चष भक्षणे (भ्वादि) = Who have many enjoyable good objects, or who have many harmless righteous enjoyments. (स्वरवः) प्रशंसकाः । = Admirers of the virtuous. (वावद्भिः) ऋत्विग्भिः | वाघतः इति ऋत्विङ्नाम (N.G. 3, 18) = with the priests. (पृतनाज्येषु ) सङ्ग्रामेषु | पृतनाज्यमिति संग्रामनाम (N.G. 2, 17) = During the battles.
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