ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
अद॑र्द॒रुत्स॒मसृ॑जो॒ वि खानि॒ त्वम॑र्ण॒वान्ब॑द्बधा॒नाँ अ॑रम्णाः। म॒हान्त॑मिन्द्र॒ पर्व॑तं॒ वि यद्वः सृ॒जो वि धारा॒ अव॑ दान॒वं ह॑न् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअद॑र्दः । उत्स॑म् । असृ॑जः । वि । खानि॑ । त्वम् । अ॒र्ण॒वान् । ब॒द्ब॒धा॒नान् । अर॑म्णाः । म॒हान्त॑म् । इ॒न्द्र॒ । पर्व॑तम् । वि । यत् । वरिति॒ वः । सृ॒जः । वि । धाराः॑ । अव॑ । दा॒न॒वम् । ह॒न्निति॑ हन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अदर्दरुत्समसृजो वि खानि त्वमर्णवान्बद्बधानाँ अरम्णाः। महान्तमिन्द्र पर्वतं वि यद्वः सृजो वि धारा अव दानवं हन् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअदर्दः। उत्सम्। असृजः। वि। खानि। त्वम्। अर्णवान्। बद्बधानान्। अरम्णाः। महान्तम्। इन्द्र। पर्वतम्। वि। यत्। वरिति वः। सृजः। वि। धाराः। अव। दानवम्। हन्निति हन् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
विषय - सूर्यवत् वीर राजा के नाना कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
भा०-हे (इन्द्र) सूर्यवत् तेजस्विन् राजन् ! जिस प्रकार सूर्य ( उत्सम् अदर्दः ) ऊपर आकाश में स्थित मेघ को छिन्न भिन्न करता है । उसी प्रकार तू ( उत्सं ) उत्तम रीति से बहने वाले झरने, कूप आदि राष्ट्र में (अदर्द:) खना, जिस प्रकार सूर्य ( खानि वि असृजः ) मेघस्थ अन्तरिक्ष छिद्रों को बनाता और उनमें प्रवेश करता है उसी प्रकार तू (खानि ) अपनी इन्द्रियों को (वि असृजः ) विविध मार्गों में प्रेरित कर । (बहुधानान् अर्णवान् अरम्णाः) सूर्य जिस प्रकार सुप्रबद्ध वा बार २ ताड़ित जलमय मेघों वा पर्वतों को ताड़ता वा, नदी तडागादि को सुभूषित करता है इसी प्रकार ( त्वम् ) तू भी ( अर्णवान् ) जल से युक्त नदी, जल या सागरों, और धनादि पतियों को ( बद्बधानान् ) खूब सुप्रबद्ध कर ( अरम्णाः ) उनको प्रसन्न कर । जिस प्रकार सूर्य ( महान्तं पर्वतं वि वः ) बड़े भारी जगत्-पालक मेघ को विच्छिन्न करता है उसी प्रकार तू भी बड़े भारी पालक पुरुष को ( वि वः) विविध उपायों से प्रसिद्ध कर । जिस प्रकार विद्युत् वा सूर्य ( धाराः विसृज ) जलधाराओं को प्रकट करता है उसी प्रकार तू आज्ञा वा उपदेश वाणियों को और राष्ट्र में जलधाराओं को विविध प्रकार से बना । ( दानवं अव हन् ) जिस प्रकार सूर्य या विद्युत् जलदाता मेघ को प्रहार कर नीचे गिराता, बरसाता है उसी प्रकार राजा तेजस्वी होकर ( दानवं ) राजनियमों और धर्म मर्यादाओं को भङ्ग करने वाले दुष्ट जन को (अवहन्) नीचे गिरा कर दण्ड दे, ऐसे व्यक्ति को पदच्युत और समाज च्युत करे और पीड़न भी करे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गातुरत्रिय ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ७, ९, ११ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, १०, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः । भुरिक् पंक्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
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