ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
त्वमुत्साँ॑ ऋ॒तुभि॑र्बद्बधा॒नाँ अरं॑ह॒ ऊधः॒ पर्व॑तस्य वज्रिन्। अहिं॑ चिदुग्र॒ प्रयु॑तं॒ शया॑नं जघ॒न्वाँ इ॑न्द्र॒ तवि॑षीमधत्थाः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । उत्सा॑न् । ऋ॒तुऽभिः॑ । ब॒द्ब॒धा॒नान् । अरं॑हः । ऊधः॑ । पर्व॑तस्य । व॒ज्रि॒न् । अहि॑म् । चि॒त् । उ॒ग्र॒ । प्रऽयु॑तम् । शया॑नम् । ज॒घ॒न्वान् । इ॒न्द्र॒ । तवि॑षीम् । अ॒ध॒त्थाः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमुत्साँ ऋतुभिर्बद्बधानाँ अरंह ऊधः पर्वतस्य वज्रिन्। अहिं चिदुग्र प्रयुतं शयानं जघन्वाँ इन्द्र तविषीमधत्थाः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। उत्सान्। ऋतुऽभिः। बद्बधानान्। अरंह। ऊधः। पर्वतस्य। वज्रिन्। अहिम्। चित्। उग्र। प्रऽयुतम्। शयानम्। जघन्वान्। इन्द्र। तविषीम्। अधत्थाः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 32; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
विषय - कृषक समान राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
भा०—( बद्बधानान् उत्सान् ) जिस प्रकार खेतिहर बंधे हुए, पक्के कुओं को (ऋतुभिः) ऋतुओं के अनुसार ( अरंहत् ) चलाता है वा सूर्य या विद्युत् जिस प्रकार ( ऋतुभिः बद्धधानान् उत्सान् अरंहत् ) ऋतु ग्रीष्मादि या अनावृष्टि आदि के कारण बंधे या रुके हुए उत्स अर्थात् जलधारा नद नदियों या मेघस्थ जलधाराओं को चलाता है और ( पर्वतस्य ऊधः शयानं अहिम् जघन्वान् तविषीम् धत्ते ) मेघ या पर्वत के जलधारक भाग को और आकाश में निश्चल स्थित मेघ को जिस प्रकार प्रहार करता हुआ सूर्य या विद्युत् बलवती शक्ति को धारण करता है उसी प्रकार हे (वज्रिन्) बलवन् ! शस्त्रास्त्र बल के स्वामिन् ! राजान् ! सेनापते ! ( त्वम् ) हे तू (ऋतुभिः ) राजसभा के विद्वान् सदस्यों से मिलकर उनकी अनुमति से ( बद्बधानान् उत्सान् ) बंधे हुए कूप, तड़ाग और बहते झरने और बंधों आदि जल स्थानों को ( अहः ) चला, उनमें नहरें या यन्त्रादि लगाकर उनको चालू कर वा (ऋतुभिः ) उनको गमनशील यन्त्रों में चालित कर | हे ( वज्रिन् ) वज्रवत् लौहादि के यन्त्रों, शस्त्रों व अस्त्रों के स्वामिन् ! तू ( तविषीम् ) अति बलवती, गज-पर्वतभेदिनी शक्ति को भी धारण कर । और ( पर्वतस्य ऊधः ) पर्वत के जलाधार स्थान को और (प्रयुतं ) लाखों करोड़ों मन ( शयानं ) गंभीर प्रसुप्तं (अहिं ) जल को ( जघन्वान् ) सुरंगादि से भेद कर उसको गति देता हुआ, नदी नहर, नल आदि द्वारा चला, उनको प्राप्त कर । इसी प्रकार हे राजन् ! तू ( तविषीम् अधत्थाः ) बलवती सेना को धारण कर, उसकी पालना कर, इस कारण तू ( ऋतुभिः ) सदस्यों से भी मिलकर ( बद्बधानान् उत्सान् अरंहः ) नियम में बंधे हुए उत्तम पुरुषों को सन्मार्ग में चला । तू (पर्वतस्य ऊधः ) पर्वतवत् जल के पालक, शत्रु शासक के जलवत् जीवन या धन के धारक स्थान और ( अहिं अयुतं शयानं ) संमुख आये लाखों की फौज सहित पड़े शत्रु को ( जघन्वान् ) मारने वाला हो ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गातुरत्रिय ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ७, ९, ११ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, १०, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः । भुरिक् पंक्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
इस भाष्य को एडिट करें