ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
महि॑ म॒हे त॒वसे॑ दीध्ये॒ नॄनिन्द्रा॑ये॒त्था त॒वसे॒ अत॑व्यान्। यो अ॑स्मै सुम॒तिं वाज॑सातौ स्तु॒तो जने॑ सम॒र्य॑श्चि॒केत॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठमहि॑ । म॒हे । त॒वसे॑ । दी॒ध्ये॒ । नॄन् । इन्द्रा॑य । इ॒त्था । त॒वसे॑ । अत॑व्यान् । यः । अ॒स्मै॒ । सु॒ऽम॒तिम् । वाज॑ऽसातौ । स्तु॒तः । जने॑ । स॒ऽम॒र्यः॑ । चि॒केत॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
महि महे तवसे दीध्ये नॄनिन्द्रायेत्था तवसे अतव्यान्। यो अस्मै सुमतिं वाजसातौ स्तुतो जने समर्यश्चिकेत ॥१॥
स्वर रहित पद पाठमहि। महे। तवसे। दीध्ये। नॄन्। इन्द्राय। इत्था। तवसे। अतव्यान्। यः। अस्मै। सुऽमतिम्। वाजऽसातौ। स्तुतः। जने। सऽमर्यः। चिकेत ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - उत्तम नायक के अधीन निर्बलों का प्रबल संघ । अध्यक्ष के कार्य ।
भावार्थ -
भा०- (यः) जो राजा ( वाजसातौ ) ऐश्वर्य लाभ और संग्राम विजय के लिये (स्तुतः समर्थः ) प्रस्तुत होकर मरने वा मारने वाले वीर पुरुषों सहित (अस्मै जने ) इस राष्ट्र के वासी जनों के ऊपर शासक होकर ( सुमति चिकेत ) उत्तम बुद्धि, सन्मति जानता और अन्यों को तदनुसार चलाने में समर्थ है ( इत्था ) ऐसे ( तबसे इन्द्राय ) बलवान् ऐश्वर्यवान् पुरुष के अधीन ( अतव्यान् नॄन् ) निर्बल पुरुषों को भी मैं (महे तवसे ) बड़ा भारी बल सम्पादन करने के लिये ( महि दीध्ये ) पर्याप्त शक्तिशाली जानता, मानता हूं । उत्तम चतुर, ज्ञानी नायक के अधीन निर्बल जन भी पर्याप्त सबल होकर बड़ा भारी कार्य करने में समर्थ होते हैं । अथवा जो ( तबसे इन्द्राय अतव्यान् समर्य: स्तुतः वाजसातौ सुमतिं चिकेत अस्मै महे तवसे महि नॄन् दीध्ये) बड़े बल और ऐश्वर्य पद के लिये यत्नवान् होकर बहुत से मर्दों के सहित संग्राम करने की मति जानता है उसके बड़े बलसैन्य के लिये भी बड़े २ नायकों को आवश्यक जानता हूं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - संवरणः प्राजापत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, २, ७, पंक्तिः । ३ निचृत्पंक्ति: । ४, १० भुरिक् पंक्ति: । ५, ६ स्वराट्पंक्तिः । । ८ त्रिष्टुप ९ निचृत्त् त्रिष्टुप । दशर्चं सूक्तम् ॥
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