ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
ऋषिः - सदापृण आत्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
हयो॒ न वि॒द्वाँ अ॑युजि स्व॒यं धु॒रि तां व॑हामि प्र॒तर॑णीमव॒स्युव॑म्। नास्या॑ वश्मि वि॒मुचं॒ नावृतं॒ पुन॑र्वि॒द्वान्प॒थः पु॑रए॒त ऋ॒जु ने॑षति ॥१॥
स्वर सहित पद पाठहयः॑ । न । वि॒द्वान् । अ॒यु॒जि॒ । स्व॒यम् । धु॒रि । ताम् । व॒हा॒मि॒ । प्र॒तर॑णीम् । अ॒व॒स्युव॑म् । न । अ॒स्याः॒ । व॒श्मि॒ । वि॒ऽमुच॑म् । न । आ॒ऽवृत॑म् । पुनः॑ । वि॒द्वान् । प॒थः । पु॒रः॒ऽए॒ता । ऋ॒जु । ने॒ष॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हयो न विद्वाँ अयुजि स्वयं धुरि तां वहामि प्रतरणीमवस्युवम्। नास्या वश्मि विमुचं नावृतं पुनर्विद्वान्पथः पुरएत ऋजु नेषति ॥१॥
स्वर रहित पद पाठहयः। न। विद्वान्। अयुजि। स्वयम्। धुरि। ताम्। वहामि। प्रऽतरणीम्। अवस्युवम्। न। अस्याः। वश्मि। विऽमुचम्। न। आऽवृतम्। पुनः। विद्वान्। पथः। पुरःऽएता। ऋजु। नेषति ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 46; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
विषय - गृहस्थ के कर्तव्यों का उपदेश । विद्वानों के कर्तव्य ।
भावार्थ -
भा०—गृहस्थ के कर्त्तव्यों का उपदेश । जिस प्रकार ( धुरि हयः न अवस्युम् प्रतरणीम् वहति ) अश्वा धुर में लगकर गतिशील गाड़ी को ढो ले जाता है उसी प्रकार मैं भी (हयः) गमन करने वाला प्रेरक कर्त्ता ( विद्वान् ) और ज्ञानवान् और धनवान् होकर ( अयुजि धुरि ) जिसका अभी किसी के साथ संयोग न हुआ हो और गृहस्थ को धारण करने में समर्थ हो ऐसी स्त्री को प्राप्त करने की ( वश्मि) कामना करूं और ( प्रतरणीम् ) नौका के समान संसार मार्ग से तरा देने वाली ( अवस्युचम् ) सन्तानादि की रक्षा करने में कुशल वा (स्वयं) अपने आप पति से (अवस्युं) अपनी रक्षा या पालन, प्रीति, तृप्ति, वचन, श्रवण, अर्थयाचन, आलिंगन, वृद्धि, ताड़ना और भागग्रहण की कामना करनेवाली उस स्त्री को ( वहामि ) विवाह द्वारा धारणा करूं, उसका पालन पोषणादि का भार अपने पर लूं । ( अस्याः ) उसको ( पुनः ) फिर ( विमुचं न वश्मि ) त्याग करने की कभी इच्छा भी न करूं । और पुनः ( आवृतं न वश्मि ) उसका अपने सन्मुख रहते २ अन्य से वरण, वा उस द्वारा अपने से अतिरिक्त अन्य पुरुष को वरण करना अथवा ( न आवृतं ) उससे कोई व्यवहार छुपा हुआ ( न वश्मि ) न करना चाहूं ( पुरः एता ) आगे २ चलने वाला ( विद्वान् ) ज्ञानवान् पुरुष वा स्त्री ऐश्वर्यं का लाभ करने वाला वोढा पुरुष ही ( पथः ) समस्त मार्गो को ( ऋजु ) सरलता से धर्मपूर्वक ( नेषति ) ले जाने में समर्थ है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रतिक्षत्र आत्रेय ऋषिः ॥ १ – ६ विश्वेदेवाः॥ ८ देवपत्न्यो देवताः ॥ छन्दः—१ भुरिग्जगती । ३, ५, ६ निचृज्जगती । ४, ७ जगती । २, ८ निचृत्पंक्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
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