ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 47/ मन्त्र 1
प्र॒यु॒ञ्ज॒ती दि॒व ए॑ति ब्रुवा॒णा म॒ही मा॒ता दु॑हि॒तुर्बो॒धय॑न्ती। आ॒विवा॑सन्ती युव॒तिर्म॑नी॒षा पि॒तृभ्य॒ आ सद॑ने॒ जोहु॑वाना ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒यु॒ञ्ज॒ती । दि॒वः । ए॒ति॒ । ब्रु॒वा॒णा । म॒ही । मा॒ता । दु॒हि॒तुः । बो॒धय॑न्ती । आ॒ऽविवा॑सन्ती । यु॒व॒तिः । म॒नी॒षा । पि॒तृऽभ्यः । आ । सद॑ने । जोहु॑वाना ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रयुञ्जती दिव एति ब्रुवाणा मही माता दुहितुर्बोधयन्ती। आविवासन्ती युवतिर्मनीषा पितृभ्य आ सदने जोहुवाना ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽयुञ्जती। दिवः। एति। ब्रुवाणा। मही। माता। दुहितुः। बोधयन्ती। आऽविवासन्ती। युवतिः। मनीषा। पितृऽभ्यः। आ। सदने। जोहुवाना ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 47; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - माता के कर्त्तव्य माता का नवयुवति कन्या का उपदेश ।
भावार्थ -
भा०- माता के कर्त्तव्य ! (मही माता ) पूज्य माता ( प्र-युञ्जती) उत्तम प्रयोग अर्थात् सन्तानों को उत्तम मार्ग में प्रेरित करती हुई (दिवः) कामना योग्य पति के लिये ( दुहितुः ) दूर में विवाह करने योग्य कन्या को (ब्रुवाणा ) उपदेश करती हुई (दिवः) सूर्य से उत्पन्न उषा के समान और (बोधयन्ती ) उसे अज्ञान निद्रा से जगाती, ज्ञानवान् बनाती हुई (एति) प्राप्त होती है । और वह ( युवतिः ) यौवन दशा को प्राप्त होकर ( आ-विवासन्ती ) अपने नाना गुणों का प्रकाश करती हुई ( मनीषा ) स्वयं अपनी बुद्धि से, (पितृभ्यः) अपने चाचा, मामा, श्वशुर आदि पालक पुरुषों के ( सदने ) गृह में भी ( आ जोहुवाना ) आदरपूर्वक बुलाई जाकर ( एति ) प्राप्त हो । वहां भी वह अपना सदा मान बनाये रक्खे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रतिरथ आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:- १, २, ३, ७ त्रिष्टुप् ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ५ भुरिक् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
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