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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 64/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अर्चनाना आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    उ॒च्छन्त्यां॑ मे यज॒ता दे॒वक्ष॑त्रे॒ रुश॑द्गवि। सु॒तं सोमं॒ न ह॒स्तिभि॒रा प॒ड्भिर्धा॑वतं नरा॒ बिभ्र॑तावर्च॒नान॑सम् ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒च्छन्त्या॑म् । मे॒ । य॒ज॒ता । दे॒वऽक्ष॑त्रे । रुश॑त्ऽगवि । सु॒तम् । सोम॑म् । न । ह॒स्तिऽभिः॑ । आ । प॒ट्ऽभिः । धा॒व॒त॒म् । न॒रा॒ । बिभ्र॑तौ । अ॒र्च॒नान॑सम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उच्छन्त्यां मे यजता देवक्षत्रे रुशद्गवि। सुतं सोमं न हस्तिभिरा पड्भिर्धावतं नरा बिभ्रतावर्चनानसम् ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उच्छन्त्याम्। मे। यजता। देवऽक्षत्रे। रुशत्ऽगवि। सुतम्। सोमम्। न। हस्तिऽभिः। आ। पट्ऽभिः। धावतम्। नरा। बिभ्रतौ। अर्चनानसम् ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 64; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 7

    भावार्थ -
    भा०-हे (मित्रा वरुणौ ) स्नेहयुक्त और श्रेष्ठ जनो ! आप दोनों ( रुशद्-गवि ) प्रदीप्त किरणों से युक्त ( देव-क्षत्रे ) प्रकाश के धनी सूर्य के आश्रय से जिस प्रकार उषा प्रकट होती है उसी प्रकार ( रुशद्-गवि ) दीप्तियुक्त अरुण अश्वों, पक्वान्न की कान्ति से युक्त भूमियों के स्वामी एवं (देवक्षत्रे ) योद्धागण के बल से सम्पन्न सेनापति के अधीन सेना के ( उच्छंत्यां ) प्रकट हो जाने पर, हे ( नरा ) उत्तम सभा वा सेना के नायक पुरुषो ! तुम दोनों भी ( अर्चनानसं ) श्रेष्ठ नासिका से युक्त सुमुख उत्तम प्राणवान् बलवान्, (सुतं सोमं ) अभिषिक्त ज्ञापक पुरुष का (बिभ्रतौ ) परिपुष्ट करते हुए ( हस्तिभिः न ) हस्तवान् कार्यकुशल पुरुषों के तुल्य (पड्भिः) शीघ्र जाने वाले पदातियों वा रथों से ( धावतं ) वेग से आगे बढ़ो। इति द्वितीयो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अर्चनाना ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः - १, २ विराडनुष्टुप् ॥ ६ निचृदनुष्टुप्, । ३, ५ भुरिगुष्णिक् । ४ उष्णिक् । ७ निचृत् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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