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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 67/ मन्त्र 2
    ऋषिः - रातहव्य आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ यद्योनिं॑ हिर॒ण्ययं॒ वरु॑ण॒ मित्र॒ सद॑थः। ध॒र्तारा॑ चर्षणी॒नां य॒न्तं सु॒म्नं रि॑शादसा ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । यत् । योनि॑म् । हि॒र॒ण्यय॑म् । वरु॑ण । मित्र॑ । सद॑थः । ध॒र्तारा॑ । च॒र्ष॒णी॒नाम् । य॒न्तम् । सु॒म्नम् । रि॒शा॒द॒सा॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यद्योनिं हिरण्ययं वरुण मित्र सदथः। धर्तारा चर्षणीनां यन्तं सुम्नं रिशादसा ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। यत्। योनिम्। हिरण्यम्। वरुण। मित्र। सदथः। धर्तारा। चर्षणीनाम्। यन्तम्। सुम्नम्। रिशादसा ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 67; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    भा०-हे ( वरुण मित्र) श्रेष्ठ, शत्रुवारक, प्रजा से मुख्य पद पर चरण करने योग्य, हे स्नेहयुक्त जनो ! आप दोनों (यत्) जब ( हिरण्ययं) हितकारी और रमणीय तथा सुवर्णादि के बने, तेजोयुक्त गृह, पदासन तथा कारण को ( आ सदथ: ) सब प्रकार से विराजते और वश करते हो तब आप ( चर्षणीनां धर्त्तारा) प्रकाशक किरणों को धारण करने चाले सूर्य, विद्युत् के समान ( चर्षणीनां धर्त्तारा ) समस्त विद्वान् मनुष्यों को धारण करने वाले और (रिशादसा ) दुष्टों को नाश करने में समर्थ होकर ( चर्षणीनां सुम्नं यन्तम् ) मनुष्यों को सुख प्रदान करो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यजत आत्रेय ऋषिः ।। मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २, ४ निचृदनुष्टुप् । ३, ५ विराडनुष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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