ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 67/ मन्त्र 3
ऋषिः - यजत आत्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
विश्वे॒ हि वि॒श्ववे॑दसो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा। व्र॒ता प॒देव॑ सश्चिरे॒ पान्ति॒ मर्त्यं॑ रि॒षः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठविश्वे॑ । हि । वि॒श्वऽवे॑दसः । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । व्र॒ता । प॒दाऽइ॑व । स॒श्चि॒रे॒ । पान्ति॑ । मर्त्य॑म् । रि॒षः ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वे हि विश्ववेदसो वरुणो मित्रो अर्यमा। व्रता पदेव सश्चिरे पान्ति मर्त्यं रिषः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठविश्वे। हि। विश्वऽवेदसः। वरुणः। मित्रः। अर्यमा। व्रता। पदाऽइव। सश्चिरे। पान्ति। मर्त्यम्। रिषः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 67; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
विषय - सब अन्य अधिकारियों का वर्णन ।
भावार्थ -
भा०- ( वरुणः ) वरण करने योग्य उत्तम धनों, ज्ञानों वेतनादि का विभाग करने वाला सर्वश्रेष्ठ राजा, (मित्रः ) सर्व स्नेही, और ( अर्यमा ) न्यायाधीश, ( विश्वे ) समस्त ( विश्व-वेदसः ) समस्त धनों, ज्ञानों को जानने वाले विद्वान् पुरुष ( व्रता ) कर्त्तव्यों, कर्मों को ( पदा इब ) अवश्य रखने योग्य पदों, कदमों या ज्ञान साधनों वा अर्थबोधक पदों के समान (सश्चिरे) करते हैं । वे ( मर्त्यं ) मनुष्यमात्र को ( रिषः ) हिंसक, दुष्ट पुरुष से वा नाश होने से ( पान्ति ) बचाते हैं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यजत आत्रेय ऋषिः ।। मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २, ४ निचृदनुष्टुप् । ३, ५ विराडनुष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
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