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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 74 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 74/ मन्त्र 10
    ऋषिः - पौर आत्रेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    अश्वि॑ना॒ यद्ध॒ कर्हि॑ चिच्छुश्रू॒यात॑मि॒मं हव॑म्। वस्वी॑रू॒ षु वां॒ भुजः॑ पृ॒ञ्चन्ति॒ सु वां॒ पृचः॑ ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्वि॑ना । यत् । ह॒ । कर्हि॑ । चि॒त् । शु॒श्रु॒यात॑म् । इ॒मम् । हव॑म् । वस्वीः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । वा॒म् । भुजः॑ । पृ॒ञ्चन्ति॑ । सु । वा॒म् । पृचः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विना यद्ध कर्हि चिच्छुश्रूयातमिमं हवम्। वस्वीरू षु वां भुजः पृञ्चन्ति सु वां पृचः ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विना। यत्। ह। कर्हि। चित्। शुश्रूयातम्। इमम्। हवम्। वस्वीः। ऊँ इति। सु। वाम्। भुजः। पृञ्चन्ति। सु। वाम्। पृचः ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 74; मन्त्र » 10
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    भा०-हे (अश्विनौ ) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! अश्वों वा विद्वानों के स्वामियो ! रथी सारिथिवत् राष्ट्र के अध्यक्ष सभा-सेनाध्यक्षो ! आप दोनों ( यत् कर्हि चित्) जहां कहीं भी होवो । ( इमं ) इस ( हवम् ) ग्रहण करने योग्य और देने योग्य वेद के सत्य ज्ञानमय वचन को ( शुश्रूयातम् ) सुनते और सुनाते रहो । ( वां ) आप दोनों को ( त्रस्वी: ) अध्यापक उपदेशक के अधीन बसने वाली शिष्य मण्डलियों के समान राष्ट्र में बसने वाली प्रजाएं (भुजः ) आप दोनों के पालन करने वाली वा राष्ट्र का भोग करने वाली होकर (सु पृञ्चन्ति ) आप दोनों से भली प्रकार सम्बद्ध होती हैं। वे (वां) आप दोनों के साथ ( उ सु ) उत्तम रीति से (पृचः ) सदा सम्पर्क बनाये रक्खें और आप को सुख देती रहें । इसी प्रकार गुरु शिष्य सदा इस ज्ञान को सुनते सुनाते रहें, शिष्य जन वा प्रजाएं उनको पालन करें और प्रेम से उनका सत्संग करती रहें । इति चतुर्दशी वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - आत्रेय ऋषिः ।। अश्विनौ देवते ॥ छन्दः — १, २, १० विराडनुष्टुप् अनुष्टुप, । ४, ५, ६, ९ निचृदनुष्टुप् । ७ विराडुष्णिक् । ८ निचृदुष्णिक् ॥ एकादशर्चं सुक्तम् ।।

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