ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 75/ मन्त्र 1
ऋषिः - पौर आत्रेयः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निच्रृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
प्रति॑ प्रि॒यत॑मं॒ रथं॒ वृष॑णं वसु॒वाह॑नम्। स्तो॒ता वा॑मश्विना॒वृषिः॒ स्तोमे॑न॒ प्रति॑ भूषति॒ माध्वी॒ मम॑ श्रुतं॒ हव॑म् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । प्रि॒यऽत॑मम् । रथ॑म् । वृष॑णम् । व॒सु॒ऽवाह॑नम् । स्तो॒ता । वा॒म् । अ॒श्वि॒नौ॒ । ऋषिः॑ । स्तोमे॑न । प्रति॑ । भू॒ष॒ति॒ । माध्वी॒ इति॑ । मम॑ । श्रुत॑म् । हव॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति प्रियतमं रथं वृषणं वसुवाहनम्। स्तोता वामश्विनावृषिः स्तोमेन प्रति भूषति माध्वी मम श्रुतं हवम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्रति। प्रियऽतमम्। रथम्। वृषणम्। वसुऽवाहनम्। स्तोता। वाम्। अश्विनौ। ऋषिः। स्तोमेन। प्रति। भूषति। माध्वी इति। मम। श्रुतम्। हवम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 75; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
विषय - दो अश्वी । विद्वान् जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
भा०-हे (अश्विना) जितेन्द्रिय एवं वेगवान् अश्वादि साधनों के स्वामी विद्वान् स्त्री पुरुषो ! (ऋषिः = ऋं गतिं सिनाति यः) गति अर्थात् क्रिया और ज्ञानशक्ति को उत्तम रीति से बांधने में समर्थ विद्वान् पुरुष, (वृषणं) खूब बलवान्, सुखप्रद और अच्छी प्रकार सुप्रबन्ध से युक्त (वसु-वाहनम् ) धन को लाने लेजाने में समर्थ वा अपने में बैठने वालों को उठाकर दूर लेजाने में समर्थ (प्रियतमं रथं ) अति प्रिय रथ एवं रमण करने योग्य रसरूप वा देने योग्य ज्ञान वचन को ( स्तोमेन ) उसके सम्बन्ध में उपदेश करने योग्य ज्ञानरहस्य के साथ ही ( वाम् प्रति भूषति ) आप दोनों को प्रत्यक्ष रूप में देता और आपको अलंकृत करता और कहता है हे (माध्वी) मधुर वचन बोलने वाले स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( मम हवं श्रुतम् ) मेरा ग्रहण करने योग्य अध्ययनादि वचन श्रवण करो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अवस्युरात्रेय ऋषि: ।। अश्विनौ देवते ॥ छन्द: – १, ३ पंक्ति: । २, ४, ६, ७, ८ निचृत्पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । ९ विराट् पंक्तिः ।। नवर्चं सुक्तम् ।।
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